तथापि तृष्णा रघुनंदनस्य विनाशकाले विपरीत बुद्धि।।
हिंदी में भावार्थ- न तो किसी ने पहले ही सोने का मृग बनाया न ही किसी ने सुना तब भी भगवान श्रीराम जैसे अवतारी पुरुष के मन में उसे पाने की इच्छा हुई। सही कहते हैं कि विनाशकाल में बुद्धि विपरीत हो जाती है।
गुणैरुत्तमतां याति नोच्चैरासनसंस्थिताः।
प्रासादशिखरस्थोऽपि काकः किं गरुडावते।।
हिंदी में भावार्थ-गुण की वजह से कोई ऊंचा कहलाता है न कि उच्च स्थान पर विराजमान होने से ही सम्मान पाया जा सकताहै। महल के शिखर पर बैठने से कौआ गरुड़ नहीं हो जाता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-उच्च पद, धन या बाहूबल से संपन्न व्यक्तियों से समाज का बहुत बड़ा वर्ग डरता है। इसी कारण लोग उनके सामने होने पर उनकी झूठी प्रशंसा जरूर करते हैं पर इससे उनको बड़ा आदमी नहीं मान लेना चाहिये। जब तक बड़े आदमी में छोटे के प्रति उदारता और सम्मान का भाव नहीं है उसका समाज के लिये केाई महत्व नहीं है किसी आदमी में दया, दान, उदारता और दूसरों की सहायता के लिये तत्पर रहने का गुण नहीं है तब तक वह अपने आपको कितना भी बड़ा समझे पर यह उसका वहम हैं। सच बात ेतो यह है कि जो अपने गुण से सभी प्रकार के लोगों का हृदय प्रसन्न कर देता है वही गुणवान बड़ा आदमी है। उच्च पद, पैसा और प्रतिष्ठा दांव पैंच से अर्जित किये जा सकते हैं पर समाज का हृदय केवल अपने गुणों से ही जीता जा सकता है।
मन की तृष्णा मनुष्य को इधर से उधर नचाती है-इसलिये वह असंभव से चीजों को अपना लक्ष्य बना लेता है। मन की तृष्ण का यह हाल है कि सामान्य इंसान की बात तो छोड़िये भगवान श्रीराम जैसे गुणी भी उस स्वर्णमय हिरन के पीछे दौड़ पड़े जो पहले कभी नहीं बना न सुना गया। तृष्णा ने उनको भ्रम में डाल दिया।
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