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Wednesday, April 1, 2009

भर्तृहरि शतकः जमीन का छोटा टुकड़ा पाकर मूर्ख लोग ही गरियाते हैं

अभुक्तायां यस्यां क्षणमपि न यातं नुपशर्तर्भुवस्तस्या लाभे क इव बहुमानः क्षितिभुजाम्।
तदंशस्याष्यंशे तदवयलेशेऽपि पतयो विषादे कत्र्तव्ये विदधति जडाः प्रत्युत मुदम्।।


हिंदी में भावार्थ-इस प्रथ्वी को अनेक राजाओं ने भोगा पर फिर भी इसे पाने वाले नये राजा अभिमान करते रहे। इसके छोटे से छोटे अंश को पाकर भी मूर्ख लोग अपनी अकड़ दिखाने लगते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वैसे खाने पीने का विषय हो तो लोग झूठा खाने को तैयार नहीं होते। ऐसा करना वह अपनी शान के खिलाफ मानते हैं मगर यह प्रथ्वी जो सदियों से अपनी धुरी पर घूम रही है और इसे अनेक राजा भोग चुके हैं पर इसका एक अंश मिल जाने पर भी उसका नया मालिक इतराने लगता है। तब उसे यह विचार नहीं आता कि यह प्रथ्वी पहले किसी अन्य के स्वामित्व में थी और अब यह उसे झूठन के रूपें मिली है फिर इस पर इतराना नहीं चाहिये। भले ही जमीन के अंश पर नयी इमारत बने पर वह है तो किसी की झूठन ही न! क्या लोग दूसरे की झूठन किसी नयी थाली में मिलने पर स्वीकार करते हैं? कतई नहीं! इसलिये ज्ञानी लोग नया मकान या भूखंड मिलने पर अपने स्वामित्व का अहंकार नहीं पालते पर मूर्ख लोग ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे कि वह जमीन का वह टुकड़ा आसमान से उतार कर स्वयं लाये हैं।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अहंकार मनुष्य को अज्ञानी बना देता है और वह अपनी भौतिक उपलब्धियों पर ऐसे इतराता है जैसे उसने पर ससंार ही स्वयं बनाया हो। इसके विपरीत ज्ञानी मनुष्य इस बात को जानते हैं कि आज जो उसके पास है वह पहले किसी अन्य के पास था और उसके बाद किसी अन्य के पास होगा।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

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