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Thursday, April 2, 2009

भृर्तहरि शतकः समदर्शी भाव से पवित्र स्थान पर शिवजी के मंत्र का जाप करें

अहौ वा हारे बलवति रिपौ वा सुहृदि वा
मणौ वा लोष्ठे वा कुसुमशयने वा दृषदि वा।
तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्ति दिवसः
क्वचित् पुण्यारण्ये शिव-शिव शिवेति प्रलपतः।।


हिंदी में भावार्थ-सांप का हो या फूलों का हार, क्रूर शत्रु हो या सहृदय मित्र, कीमती हीरा हो या मिट्टी का ढेला, फूलों की सेज हो या पत्थर का बिस्तर, कांटों में रहना हो या स्त्रियों के मध्य अपना तो यही विचार है कि समदर्शी भाव से किसी पवित्र स्थान रहकर शिव के मंत्र का जाप करते हुए जीवन व्यतीत करें।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में शिव को सत्य का प्रतीक माना जाता है। अनेक सच्चे संत और साधु इसलिये ही लोगों को शिव का मंत्र जाप करने का संदेश देते हैं। इस संसार में स्थितियां बदलती रहती हैं। कभी सोने के लिये अच्छा बिस्तर मिलता है तो कभी पत्थर पर ही सोना पड़ता है। कभी हीरा मिलता है तो कभी पत्थर का टुकड़ा हाथ में आता है। हमारे अंदर कामनाओं का भाव रहता है जो कभी निराशा मेें तो कभी प्रसन्नता में स्थित करता है। दोनों ही दुःखकारक हैं। निराशा तो है ही प्रसन्नता के बाद अगर कोई तकलीफ वाली बात सामने आती है तो मन में तनाव भी अधिक होता है।

इसलिये हमारे प्राचीन काल के ऋषि और मुनि जीवन में समदर्शी और निष्काम भाव से रहने का संदेश देते हैं। इसके लिये ‘ओम नमो शिवायः’ मंत्र का जाप किया जाये तो बहुत अच्छा है। इससे मन और विचारों से मुक्ति मिलती है और अध्यात्मिक भाव स्वतः ही पैदा होता है। राजा भर्तृहरि की तरह ही अनेक अध्यात्मिक मनीषियों ने मनुष्यों को समदर्शी और निष्काम भाव से जीवन में कार्य करने का संदेश इसलिये ही दिया क्योंकि जहां आसक्ति है वहीं विरक्ति भी है। मगर आसक्ति आसानी से पीछा नहीं छोड़ती और विरक्ति को हम चाहते नहीं है। यह द्वंद्व जीवन में अशांति फैलाता है। इससे बचने का उपाय है कि भगवान शिव की आराधना की जाये।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

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