आया प्रेम कहाँ गया, देखा था सब कोय
छिन रोवै छिन में हंसै, सो तो प्रेम न होय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेमी के मन में प्रेम आता है तो सबको दिखता है पर वह फिर चला कहाँ जाता है इसका पता ही नहीं लगता। जो क्षण भर में प्रेम में हंसने लगे और रोने लगे वह प्रेम नहीं हो सकता।
आज के संदर्भ में व्याख्या-हिन्दी फिल्मों में कहानियों और गीतों में जो प्रेम दिखाया जाता है उससे युवा पीढी के दर्शक बहुत भ्रमित तो होते हैं साथ ही अनेक बुद्धिमान लोग भी उसे नहीं समझ पाते। अक्सर इस प्रेम में बहकावे में आकर युवक युवतियां गलतियां कर बैठते हैं। यह क्षणिक प्रेम केवल भ्रम है और जब इसका भूत उतरता है तो सब रोने लगते हैं। टीवी चैनलों पर चिल्लाकर इसका प्रचार होता है। कहीं किसी प्रेम प्रसंग में विवाद होता है तो बस 'प्रेम पर पहरा', 'प्रेम के बीच जाति और धर्म की दीवार'' और ''प्रेम का दुश्मन'' जैसे जुमले सुनने को मिलते हैं। दैहिक आकर्षण से उत्पन्न यह प्रेम कभी स्थाई नहीं होता जिसके नतीजे बाद में लड़कियों को अधिक भोगने पड़ते हैं।
प्रेम का स्थाई भाव होता है और उसका विवाह करने या रिश्ते को नाम देने से कोई संबंध नहीं होता और जिससे प्रेम होता है उसको देखने या न देखने से कोई अंतर नहीं पड़ता। उसे तो मन में धारण करने से ही मन प्रफुल्लित होता है। उसमें किसी से कुछ माँगा नहीं जाता बल्कि त्याग किया जाता है। सच तो यह है कि प्रेम का स्थाई भाव तो केवल भगवान और अपने गुरु के प्रति ही हो सकता है क्योंकि बाकी तो सब लोग स्वार्थ की वजह से संपर्क में आते हैं। उनका प्रेम तो क्षणिक होने के कारण एक तरह से भ्रम होता है।
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