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Friday, August 10, 2007

तुलसीदास जी ने यह भी कहा है


कवित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहै सुखद हास रस एहू ॥
भाषा भनिति भोरी मति मोरी । हंसिबे जोग हँसे नहिं खोरी

जो न तो कविता के रसिक है और न जिनका श्री रामचंद्र जीं के चरणों में प्रेम है उनके लिए यह कविता सुखद हास्य रस का काम देगी। प्रथम तो यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है, इससे यह हंसने के योग्य ही है, हंसने में कोई दोष नहीं है।

प्रभु पद प्रीति न समुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनी लगाही फीकी॥
हरी हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहैं मधुर कथा रघुवर की ॥

जिन्हें न तो प्रभु के चरणों से प्रेम है और न इसकी समझ ही है उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी। जिनकी श्री हरि(श्री भगवान् विष्णु ) और श्री हर (भगवान् शिव ) के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करने वाली नहीं है उन्हें श्री रघुनाथ जी कि यह कथा सुनने में मीठी लगेगी।

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