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लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर
Thursday, May 24, 2007
आओ कुछ क्षणिक मुस्कराएँ
तैय्रारी
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बिकता नहीं माल
उधार पर बेचने की तैयारी है
मूल के साथ
ब्याज वसूलने की बारी है
दोस्तो दूर ही रहना इस
उधार माल से
यह एक बीमारी है
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यकीन
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इस बाजार में
ज़ज्बातों की कोई
क़दर नहीं भैया
हर माल है एक रुपैया
यकीन मिले तुम्हारी किस्मत
धोखा भी हो सकता है
क्योंकि यहां
बाप बड़ा न भैया
सबसे बड़ा रुपैया
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पहचान
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सांप से ज्यादा जहरीला कौन
सिंह से ज्यादा खतरनाक कौन
बिना फन और नुकीले पंजों के
आदमी उनसे भी ज्यादा है
विषैला और भयानक
करता है खेल
रहता है मौन
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ठेका
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इधर पर्यावरण की रक्षा
की बात करते हैं
उधर देते हैं वन कटाई का ठेका
पहले विनाश कर लें
फिर देंगे विकास का ठेका
तुम बिना सांस लिए मर जाओ
तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों के
जिंदा रहने का है उनका ठेका
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3 comments:
बिल्कुल सच लिखा है ---
पहले वायरस बनाएँ/फैलाएँ, फिर खूब बेच पाएँगे एण्टीवायरस
पहले बीमारी फैलायें, फिर खूब चलेगा अपना क्लिनिक...
यही चल रहा है आजकल...
बहुत अच्छा लिखा है!
बहुत बढिया लिखते हो।
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