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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


हिंदी मित्र पत्रिका

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Sunday, June 30, 2013

मनु स्मृति के आधार पर चिंत्तन-किसी को अनुकूल न बना सकें तभी उससे संघर्ष करें (kisee ko anukool n bana seken tabhi usse sangharsh karen-religion thought based on manu smriti)



                          विश्व इतिहास में अनेक युद्ध हो चुके हैं पर किसी का कोई स्थाई नतीजा नहीं निकला। कभी धर्म  तो कभी संस्कृति की रक्षा या फिर उनकी स्थापना के नाम पर अनेक महारथियों ने युद्ध लड़े पर पहले तो उनको कोई उपलब्धि नहीं मिली और मिली तो वह स्थाई नहीं रही। हमारे देश में हिटलर तथा नेपोलियोन की चर्चा बहुत होती है।  खासतौर से भारतीय विचाराधाराओं को वर्तमान संदर्भ में अप्रासांगिक मानने वाले बुद्धिमान लोग हिटलर, मुसोलनी तथा स्टालिन के साथ ही नेपोलियन की महानता का जिक्र करते हुए भी नहीं थकते।  राज्य प्राप्त कर  उससे समाज में बदलाव लाने की नीति का प्रवर्तक हिटलर को ही माना जा सकता है।  हमारे देश में ही अनेक ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो कहीं न कहीं हिटलर से प्रभावित हैं, पर सच बात तो यह है कि हिटलर की आक्रामक प्रवृत्ति के वजह से न केवल जर्मनी बंटा बल्कि अंततः उसे स्वयं भी अपनी जान गंवानी पड़ी।  आधुनिक विश्व इतिहास में ऐसी अनेक घटनायें दर्ज हैं जब कोई राज्य प्रमुख अपनी प्रजा का हित करने में असफल रहने पर  अपने से कमजोर देशों के साथ युद्ध कर उससे प्राप्त विजय से जनता में विश्वास हासिल करने का प्रयास करता है।  हिटलर ने चालाकी से राज्य प्राप्त किया पर प्रजा के लिये वह कुछ अधिक कर सका हो यह इतिहास में दर्ज कहीं नहीं मिलता।  वह हमेशा ही युद्धों में व्यस्त रहा।  नतीजा यह रहा कि उसका नाम एक तानाशाह राज्य प्रमुख के रूप में लिया जाता है पर प्रजा हित करने के लिये उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता। 
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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अनित्यो विजयो यस्माद् दृश्यते युध्यमानयोः।
पराजयश्च संग्रामे तस्माद् वृद्ध्र विवर्जयेत्।।

           हिन्दी में भावार्थ-युद्ध में जय तथा पराजय अनिश्चित होती है इसलिये जहां तक हो सके इसलिये युद्ध से बचना चाहिये।

साम्रा दानेन भेदेन समस्तैरथवा पृथक्।
विजेतृः प्रयतेतारीन्न युद्धेन कदाचन्।

       हिन्दी में भावार्थ-जीत की इच्छा करने वाले राज को साम, दाम तथा भेद की रणनीति का सहारा लेना चाहिये। किसी भी विधि से शत्रु को अपने अनुकूल बनाने के प्रयास में असफल होने पर ही युद्ध का विचार करना चाहिये।
        युद्ध के बारे में तो यह कहा जाता है कि उसमें हारने वाले के पास कुछ नहीं बचता तो जीतने वाला भी बहुत कुछ गंवाता है।  अपने शत्रु से निपटने के चार तरीके हैं-साम, दाम, भेद तथा दंड।  इनमे प्रथम तीन तरीके राज्य प्रमुख की बुद्धिमता का प्रमाण माना जाता है।  सच बात तो यह है कि राजनीति का अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह केवल राज्य कर्म के लिये है।  राजनीति सिद्धांतों का  निजी जीवन में उसका उपयोग होता है।  राजनीति राजस भाव का ही अंश है और इस भाव का राज्य कर्म तो केवल एक भाग है।  परिवार, मित्रता, व्यवसाय तथा धर्म के क्षेत्र में इन चारों नीतियों का पालन करना आवश्यक होता है।  व्यक्तिगत जीवन में हर मनुष्य को प्रत्यक्ष वाद विवाद से बचना चाहिये।  इससे न केवल अपनी शारीरिक हानि की संभावना होती है बल्कि कानून टूटने का अंदेशा भी होता है।  एक बात तय है कि राज्य कर्म हो या निज कर्म हमेशा ही बुद्धिमानी से नीति का पालन करना चाहिये।
           
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Saturday, May 25, 2013

ऋग्वेद के आधार पर चिंत्तन-मन में पवित्र संकल्प धारण करें (rigved ke adhar par chinttan-man mein pavitra sankalp dharan karen)

      इस संसार में जो सफल तथा  व्यक्ति प्रसिद्ध हुए हैं उन्होंने अपने लक्ष्य का निर्माण बाल्यकाल में ही कर लिया था। कुछ ने युवा होने पर संकल्प धारण किया पर उनके प्रयास निष्काम होने के साथ ही दृढ़ संकल्प के साथ जुड़े हुए थे। इसलिये वह सफल व्यक्ति कहलाये।  सच बात तो यह है कि अनेक लोग अपने लक्ष्य तथा संकल्प बदलते रहते है। परिणामस्वरूप उनके हाथ कुछ नहीं आता।  इसके अलावा जो लोग  अपने लक्ष्य के साथ कामनाओं की संभावना अधिक ही मन में  रखते हैं, वह भी अधिकतर नाकाम ही होते हैं।  अधिकतर लोग किसी कार्य को पेट पालने या कमाने का लक्ष्य रखकर प्रारंभ करते हैं।  उनके लिये कमाना ही फल है।  ऐसे में उनकी बुद्धि संकीर्ण हो जाती है जिससे व्यापक रूप से कार्य करना संभव नहीं हो पाता।  पहले तो यह समझना चाहिये कि सबका दाता परमात्मा है।  दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम!  मनुष्य को अपना काम यह सोचकर करना चाहिये कि वह तो उसे करना ही है।  बिना काम किये शरीर जर्जर हो ंजाता है।  उस काम से जो उसे भौतिक उपलब्धि होती है वह कोई फल नहीं होता क्योंकि वह तो आगे के काम में व्यय हो जाती है।  नौकरी में वेतन मिले या व्यापार में लाभ हो वह कोई साथ नहीं रखता बल्कि परिवार और अपने पर खर्च करता है। यह उपलब्धि कर्म का विस्तार करती है न कि वह फल है। इसलिये काम अपने हृदय को संतोष देने के लिये करना चाहिये।
 ऋग्वेद में कहा गया है कि
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आकृतिः सत्या मनसो में असतु।
           हिन्दी में भावार्थ-मन के संकल्प और प्रार्थना सत्य हो।
समाना व आकृतिः  आकूतिः समाना हृदयान वः।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसह्यसति।।
            हिन्दी में भावार्थ-मनुष्यों  के संकल्प एक समान रहें और हृदय भी एक समान हों जिससे संगठित होने पर कार्य संपन्न होता है। जब संकल्प, मन और विचार का मेल होता है तब एकता स्वतः हो जाती है।
         दूसरी बात यह कि अपना मेल उन लोगों से करना चाहिये जिनका संकल्प, विचार तथा लक्ष्य समान हो। विपरीत यह प्रथक चाल चलन वाले से संबंध रखने से कोई लाभ नहीं होता।  समान विचाराधारा वाले के साथ चलने पर संगठन बनता है और कोई लक्ष्य आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।  जीवन में संकल्प का अत्यंत महत्व है। जिस तरह का संकल्प हम करते हैं वैसा ही वातावरण हमारे सामने आता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Wednesday, November 23, 2011

तुलसीदास के दोहे-दुर्जन लोग काम पड़ने पर सज्जन की तरह पेश आते हैं (sant mahakavi tulsidas ke dohe-dusht aur sanp ka vyavhar ek jaisa)

                सारे विश्व में जिस भी प्रसिद्ध आदमी को देखो वह समाज सेवा के दावे करता दिख रहा है। अब तो स्थिति यह है कि मनुष्य का आर्थिक, मानसिक तथा शरीरिक शोषण कर धन के साथ प्रसिद्धि अर्जित कर चुके अनेक कथित महान लोग समाज सेवा के लिये अपने संगठन खड़े करते हैं। अनेक जगह संस्थाओं तथा कथित समाज सेवकों को दान देते हैं। यह सब प्रचार में देखकर उनके अनेक लोग प्रशंसक भी हो जाते हैं, मगर बहुत लोग इस बात को जानते हैं कि यह सब ढोंग है। उनके व्यवसायिक प्रचारक उनको देवता सिद्ध करते हैं जिससे केवल पैसा ही कमाया जाता है। अपनी छत्रछाया के नीचे रहने वालों का शोषण कर धन जुटाने वाले या मनोरंजन के माध्यम से लोगों के मानस में कल्पित नायक की तरह स्थापित लोग कभी भी हृदय में सेवा भाव धारण नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने अपना लक्ष्य ही इस भौतिक संसार पर राज्य करना रहा होता है। सेवा का भाव तो बचपन में ही माता पिता के संस्कारों तथा अध्यात्मिक दर्शन के अध्ययन के माध्यम से मनुष्य में स्थापित हो जाता है और पचपन में तो केवल आदमी अपनी प्रतिष्ठा पाने की दृष्टि से समाज सेवा करता है। धन, प्रतिष्ठा और पद के साथ बरसों तक जुड़े लोग अपनी बोरियत दूर करने क्रे लिये समाज सेवा का काम हाथ लेते हैं उसमें भी इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनका धन इस तरह उपयोग में आये कि उसका व्यय तो हो पर आय भी हो जाये। कई धनिक लोग तो ऐसे होते हैं जो समाज सेवकों को दान लेकर उनका उपयोग अपने प्रचार के साथ ही सामाजिक संस्थाओं पर अपना नियंत्रण करने के लिये करते हैं।
कविवर संत तुलसीदास कहते हैं कि
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‘तुलसी’ जग जीबन अहित, कतहुं कोउ हित जानि।
सोषक भानु कृसानु महि, पवन एक घन दानि।।
          ‘‘इस संसार में दूसरों को दुःख देने वाले बहुत हैं जबकि सुख देने वाले विरले ही होते हैं। जिस तरह सूर्य, अग्नि, वायु और पृथ्वी जल को सुखाने वाले हैं पर जल देने वाला बादल तो एक ही है।’’
मिलै जो सरलहि सरल ह्वै, कुटिल न सहज बिहाइ।
सो सहेतु ज्यों बक्र गति, ब्याल न बिलहिं समाइ।।
           ‘‘दुष्ट लोग अपना काम करने पही सज्जनता का इस तरह ढोंग करते हैं जैसे कि टेढ़ीमेड़ी चाल चलने वाला सांप सीधी चाल से अपने बिल में प्रवेश करता है।’’
        हम महान कवि और संत तुलसी दास के दर्शन को माने तो इस संसार में कल्याण करने वाले अत्यंत कम होते हैं। अधिकतर लोग तो केवल दूसरे के शोषण की योजना बनाते हुए अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते है। यही कारण है कि आजकल हमारे देश में हजारों समाज सेवी संस्थायें खुल गयी हैं। इनके साथ अनेक सामान्य लोग जुड़ते हैं पर बाद में उनको पता चलता है कि यह सेवा केवल एक ढोंग है। दूसरी बात यह कि समूह में कभी सेवा नहीं होती क्योंकि यह संभव ही नहीं है कि कहीं सत्य में सेवा भाव रखने वाले लोगों का कोई समूह बन जाये। समाज सेवा करने वाले विरले ही होते हैं और उनका समूह बन जाये यह संभव नहीं है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
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