सारे विश्व में जिस भी प्रसिद्ध आदमी को देखो वह समाज सेवा के दावे करता दिख रहा है। अब तो स्थिति यह है कि मनुष्य का आर्थिक, मानसिक तथा शरीरिक शोषण कर धन के साथ प्रसिद्धि अर्जित कर चुके अनेक कथित महान लोग समाज सेवा के लिये अपने संगठन खड़े करते हैं। अनेक जगह संस्थाओं तथा कथित समाज सेवकों को दान देते हैं। यह सब प्रचार में देखकर उनके अनेक लोग प्रशंसक भी हो जाते हैं, मगर बहुत लोग इस बात को जानते हैं कि यह सब ढोंग है। उनके व्यवसायिक प्रचारक उनको देवता सिद्ध करते हैं जिससे केवल पैसा ही कमाया जाता है। अपनी छत्रछाया के नीचे रहने वालों का शोषण कर धन जुटाने वाले या मनोरंजन के माध्यम से लोगों के मानस में कल्पित नायक की तरह स्थापित लोग कभी भी हृदय में सेवा भाव धारण नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने अपना लक्ष्य ही इस भौतिक संसार पर राज्य करना रहा होता है। सेवा का भाव तो बचपन में ही माता पिता के संस्कारों तथा अध्यात्मिक दर्शन के अध्ययन के माध्यम से मनुष्य में स्थापित हो जाता है और पचपन में तो केवल आदमी अपनी प्रतिष्ठा पाने की दृष्टि से समाज सेवा करता है। धन, प्रतिष्ठा और पद के साथ बरसों तक जुड़े लोग अपनी बोरियत दूर करने क्रे लिये समाज सेवा का काम हाथ लेते हैं उसमें भी इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनका धन इस तरह उपयोग में आये कि उसका व्यय तो हो पर आय भी हो जाये। कई धनिक लोग तो ऐसे होते हैं जो समाज सेवकों को दान लेकर उनका उपयोग अपने प्रचार के साथ ही सामाजिक संस्थाओं पर अपना नियंत्रण करने के लिये करते हैं।
कविवर संत तुलसीदास कहते हैं कि
---------------
‘तुलसी’ जग जीबन अहित, कतहुं कोउ हित जानि।
सोषक भानु कृसानु महि, पवन एक घन दानि।।
---------------
‘तुलसी’ जग जीबन अहित, कतहुं कोउ हित जानि।
सोषक भानु कृसानु महि, पवन एक घन दानि।।
‘‘इस संसार में दूसरों को दुःख देने वाले बहुत हैं जबकि सुख देने वाले विरले ही होते हैं। जिस तरह सूर्य, अग्नि, वायु और पृथ्वी जल को सुखाने वाले हैं पर जल देने वाला बादल तो एक ही है।’’
मिलै जो सरलहि सरल ह्वै, कुटिल न सहज बिहाइ।
सो सहेतु ज्यों बक्र गति, ब्याल न बिलहिं समाइ।।
सो सहेतु ज्यों बक्र गति, ब्याल न बिलहिं समाइ।।
‘‘दुष्ट लोग अपना काम करने पही सज्जनता का इस तरह ढोंग करते हैं जैसे कि टेढ़ीमेड़ी चाल चलने वाला सांप सीधी चाल से अपने बिल में प्रवेश करता है।’’
हम महान कवि और संत तुलसी दास के दर्शन को माने तो इस संसार में कल्याण करने वाले अत्यंत कम होते हैं। अधिकतर लोग तो केवल दूसरे के शोषण की योजना बनाते हुए अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते है। यही कारण है कि आजकल हमारे देश में हजारों समाज सेवी संस्थायें खुल गयी हैं। इनके साथ अनेक सामान्य लोग जुड़ते हैं पर बाद में उनको पता चलता है कि यह सेवा केवल एक ढोंग है। दूसरी बात यह कि समूह में कभी सेवा नहीं होती क्योंकि यह संभव ही नहीं है कि कहीं सत्य में सेवा भाव रखने वाले लोगों का कोई समूह बन जाये। समाज सेवा करने वाले विरले ही होते हैं और उनका समूह बन जाये यह संभव नहीं है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की धर्म संदेश पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की अमृत संदेश-पत्रिका
6.दीपक भारतदीप की हिन्दी एक्सप्रेस-पत्रिका
7.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
No comments:
Post a Comment