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Wednesday, October 27, 2010

पतंजलि योग विज्ञान-संतोष ही जीवन का सबसे बड़ा धन (patanjali yoga vigyan-santosh jivan ka dhan)

शौचात्स्वांगजुगुप्सा परैरसंसर्गः।।
हिन्दी में भावार्थ-
शौच करने से अपने अंगों में वैराग्य तथा दूसरों से संपर्क न रखने की इच्छा पैदा होती है।
सत्त्वशुद्धिसौमनरस्यैकाग्र्येन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च।।
हिन्दी में भावार्थ-
इसके सिवा अंतकरण की शुद्धि, मन में प्रसन्नता, चित की एकाग्रता, इंद्रियों का वश में होना और आत्मसाक्षात्कार की योग्यता की अनुभूति भी होती है।
संतोषादनुत्तसुखलाभः।।
हिन्दी में भावार्थ-
संतोष से उत्तम दूसरा कोई सुख या लाभ नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम जब योग साधना करते हैं तब अपनी देह के समस्त अंगों की क्रियाओं को देख सकते हैं। हम अपनी खाने पीने तथा शौच की क्रियाओं को सामान्य बात समझ कर टालते हैं जबकि जीवन के आनंद का उनसे घनिष्ठ सम्बंध है। इसका अनुभव तभी किया जा सकता है जब हम योगासन, प्राणायाम, ध्यान तथा मंत्र जाप करें। हम जब शौच करते हैं तब अपनी देह से गंदगी निकलने के साथ ही अपने अंदर सुख का अनुभव करें। अगर ऐसा न हो तो समझ लेना चाहिए कि अभी हमारी देह में अनेक प्रकार के विकार रह गये हैं। जब हम शौच के समय अपने अंदर से विकार निकलने की अनुभूति होती है तब मन में एक तरह से वैराग्य भाव आता है और साथ ही मन में यह भी भाव आता है कि जितना हो सके अपने खान पान में सात्विक भाव का पालन किया जाये। ऐसी वस्तुऐं ग्रहण की जायें जो सुपाच्य तथा देह के लिये कम तकलीफदेह हों। इतना ही नहंी कम से कम भोजन किया जाये ताकि देह और मन में विकार न रहें यह अनुभूति भी होती है। कहने का अभिप्राय यह है कि शौच से निवृत होने पर देह के स्वस्थ होने की अनुभूति होना चाहिए। इसके विपरीत अगर शरीर में थकावट या कमजोरी के साथ मानसिक तनाव का अनुभव तो समझ लेना चाहिए कि हमारी देह बिना योगसाधना के विकार नहीं निकाल सकती।
इतना ही नहीं अपनी देह की हर शारीरिक क्रिया के साथ हमें अपने अंदर संतोष का अनुभव हो तभी यह मानना चाहिए कि हम स्वस्थ हैं। इस संसार में संतोष ही सुख का रूप है। अपने मन में असंतोष से अपना ही खून जलाकर कोई सुखी नहीं रह सकता।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com

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Thursday, January 15, 2009

भर्तृहरि संदेशः मदद कर उसका प्रचार न करें

पद्माकरं दिनकरो विकची करोति
चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम्
नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति
संत स्वयं परहिते विहिताभियोगाः


हिंदी में आशय-बिना याचना किये सूर्य नारायण संसार में प्रकाश का दान करते है। चंद्रमा कुमुदिनी को उज्जवलता प्रदान करता है। कोई प्रार्थना नहीं करता तब भी बादल वर्षा कर देते हैं। उसी प्रकार सहृदय मनुष्य स्वयं ही बिना किसी दिखावे के दूसरों की सहायता करने के लिये तत्पर रहते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज सेवा करना फैशन हो सकता है पर उससे किसी का भला होगा यह विचार करना भी व्यर्थ है। टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में समाज सेवा करने का समाचार आना एक विज्ञापन से अधिक कुछ नहीं होता। कैमरे के सामने बाढ़ या अकाल पीडि़तों को सहायता देने के फोटो देखकर यह नहीं समझ लेना चाहिये कि वह मदद है बल्कि वह एक प्रचार है। बिना स्वार्थ के सहायत करने वाले लोग कभी इस तरह के दिखावे में नहीं आते। जो दिखाकर मदद कर रहे हैं उनसे पीछे प्रचार पाना ही उनका उद्देश्य है। इससे समाज का उद्धार नहीं होता। समाज के सच्चे हितैषी तो वही होते हैं जो बिना प्रचार के किसी की याचना न होने पर भी सहायता के लिये पहुंच जाते हैं। जिनके हृदय में किसी की सहायता का भाव उस मनुष्य को बिना किसी को दिखाये सहायता के लिये तत्पर होना चाहिये-यह सोचकर कि वह एक मनुष्य है और यह उसका धर्म है। अगर आप सहायता का प्रचार करते हैं तो दान से मिलने वाले पुण्य का नाश करते हैं।
कहते हैं कि दान या सहायता देते समय अपनी आँखें याचक से नहीं मिलाना चाहिए क्योंकि इससे अपने अन्दर अंहकार और उसके मन में कुंठा के भाव का जन्म होता है। दान या सहायता में अपने अन्दर इस भाव को नहीं लाना चाहिए कि "मैं कर रहा हूँ*, अगर यह भाव आया तो इसका अर्थ यह है कि हमने केवल अपने अहं को तुष्ट किया।
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