हमारे देश में श्रीमद्भागवत गीता का नाम बहुत श्रद्धा व विश्वास से लिया जाता है उसे देखते हुए तो हमारे देश में मानसिक, शारीरिक तथा वैचारिक रूप से सभी लोगों को अत्यंत मजबूत होना चाहिये पर ऐसा दिखता नहीं। दरअसल गीता के ज्ञान का पढ़कर उसे समझना फिर व्यावाहरिक में उतारना सहज नहीं है। उसमें भगवान श्रीकृष्ण ने भृकुटि पर ध्यान रखकर साधना करने का जो नियम दिया है वह अत्यंत व्यापक विषयों में कार्यसाधन की दृष्टि से योगदान देता है।
कहा जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास रहता है। यह भी माना जाता है कि स्फूर्त मन से देह में भी उत्साह रहता हैं। इसका अर्थ यह है कि तन और मन का आपस में स्थाई संबंध जीवन भर रहता है। हमारे दर्शन के अनुसार तो मनुष्य की पहचान व नियंत्रणकर्ता उसका मन ही है। शरीर स्वस्थ रखने के लिये अनेक तरह के उपाय और दवाईयां हैं। कुछ लोग नित व्यायाम भी करते हैं। मगर मन का व्यायाम कैसे हो? इसका उपाय कोई चिकित्सक, शिक्षक या पेशेवर विद्वान नहीं बता पाता। देह के अंग पकड़कर इधर से उधर घुमाये जा सकते हैं मगर मन को पकड़ना सहज ही नहीं असंभव भी लगता है। यही कारण है कि हमारे देश में आजकल पंचतारा चिकित्सालय तथा विश्वख्यात चिकित्सकों की उपस्थिति के बावजूद स्वास्थ्य का सूचकांक गिरता जा रहा है। संस्कृतनिष्ठ नामों से सुशोभित निजी चिकित्सालय बाहर से स्वर्ग जैसे प्रतीत होते हैं पर जिसमें अस्वस्थ धनिक ही वास करने की पात्रता रखते हैं।
संसार में भौतिकतावाद ने देह के विश्राम के लिये अनेक विलासी साधनों का सृजन किया है पर मन के विश्राम के सारे स्थान नष्ट किये हैं। बाह्यकेंद्रित मनुष्य का मन एकांत में ध्यान साधना की बात सोच भी नहीं सकता। ध्यान वह क्रिया है जो चंचल मन को ठहराव देती है। देह की सूक्ष्म इंद्रियों में इस ठहराव से सुखद अनुभूति होती है मगर माया के कूंऐ का मैंढक मन कभी उससे बाहर निकलना नहीं चाहता। जिन लोगों को मन में संताप है उन्हें ध्यान करना ही चाहिये। ध्यान से बाह्य स्थिति भले ही प्रत्यक्ष न बदले पर उनके प्रति बदले दृष्टिकोण से मनुष्य में स्थिरता आती है और वह समस्याओं से पार पा सकता है।
-----------------------
No comments:
Post a Comment