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Saturday, March 28, 2015

अन्ना के पुराने भक्तों के पूरे भारत में छा जाने क संभावना क्षीण-हिन्दी लेख


       आज अन्ना हजारे के तीन चार वर्ष पूर्व चलाये गये भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की याद आ रही है।  लोकतंत्र में आंदोलन से सत्ता के शिखर पहुंचने का तरीका नया नहीं है पर वर्तमान समय में वह फिर उपयोग की प्रमाणिकता दिखा रहा है। उस समय अन्ना हजारे के अनशन ने पूरे देश को आंदोलित किया था। उनके कुछ भक्तों ने कीचड़ साफ करने के लिये नाले मे ही उतरने का उपक्रम किया तो लगा कि समाज में सार्वजनिक मर्यादायें बनाये रखने की उनकी प्रतिबद्धता उल्लेखनीय है। यह अलग बात है कि इन भक्तों ने अन्ना के निकट रहने से ही अपनी छवि बनायी थी जिसका नकदीकरण की इच्छा उनके अंदर थी।  उस समय विद्वान लोगों का भी मानना था कि तत्कालीन राजनीति परिदृश्य में अपनी दाल न गलते देख कुछ उत्साही लोगों ने पहले आंदोलन फिर सत्ता की राह पर चलने का लक्ष्य बनाकर ही अन्ना के नाम का सहारा योजनबद्ध ढंग से लिया है।
 इन भक्तों ने एक नया राजनीतिक दल बनाया। 2013 में महानगरीय प्रकृति की दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीता तो फिर 2014  के लोकसभा के आम चुनाव में महायोद्धा के रूप में उतर गये। यह अलग बात है कि अन्ना के आंदोलन में किये उनके श्रमदान के पुण्य इतने शक्तिशाली नहीं थे कि इतना बड़ा फल मिल जाता।  दरअसल वह पुण्य इतने ही थे कि दिल्ली में 49 तक राज्य सुख मिल सके।  यह अलग बात है कि फिर 2015 में वही दिल्ली विधानसभा हाथ आयी जिसे शेष भारत का जनमानस एक महानगर पालिका से अधिक नहीं मानता।
      बहरहाल अन्ना के इन भूतपूर्व भक्तों के बीच दिल्ली की सत्ता आने के बाद जो आपस मनमुटाव हुआ उससे एक बात तो साफ होती है कि काजल की कोठरी से कोई बिना काले दाग के बाहर नहीं आ सकता। उस समय जिन लोगों ने अपनी छवि उत्साही समाज सेवक की बनायी थी आज उन पर सत्ता का अहंकार चढ़ ही गया लगता है। अब उनकी विरोधाभासी छवि हैरान किये दे रही है।
        एक अध्यात्मिक लेखक होने के नाते हमें कभी राजसी पुरुषों की दोहरी छवि पर आश्चर्य नहीं होता।  सत्ता पाने या समाज सुधारने के आंदोलन हमारी दृष्टि से राजसी कर्म का ही भाग है जिससे काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार जैसी बुराईयां आती हैं।  हमने अन्ना के भक्त जब सत्ता की राह पर आये तो हम उनसे सात्विकता की आशा तो नहीं कर रहे पर राजसी कर्म में जिस भावनात्मक, वैचारिक तथा प्रशासनिक कार्यों में दृढ़ता की आशा कर रहे थे वह भी अब आगे बढ़ती नहीं दिख रही।  एक बात हम यहां यह बता दें कि राजसी कर्म कोई बुरा नहीं होता न ही राजसी पुरुष कमतर होते हैं शर्त यह है कि वह अपने कर्म के स्वरूप तथा परिणाम पर विचार कर योजनबद्ध ढंग से काम करे।  बहरहाल अन्ना के पुराने भक्तों से पूरे भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर छा जाने की जो संभावना पैदा हुई थी वह अब क्षीण हो गयी लगती है। हालांकि दिल्ली तथा पंजाब के आसपास के राज्यों में इसका अस्तित्व बना रहेगा। इससे आगे विस्तार केवल एक सपना होगा।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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