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Sunday, January 25, 2015

आस्था के नाम पर धर्म पर चर्चा रोकना गलत-हिन्दी चिंत्तन लेख(aastha ke naam par dharam par charcha rokana galat-hindi thought article)



            फ्रांस में शार्ली हेब्दो पत्रिका पर हमले से मध्य एशिया के उन्मादी समूहों को बरसों तक प्रचारात्मक ऊर्जा मिलेगी।  पहले यह ऊर्जा सलमान रुशदी की पुस्तक के बाद उन पर ईरान के एक धार्मिक नेता खुमैनी के फतवे से मिली थी।  इसके बाद मध्य एशिया का धार्मिक उन्माद बढ़ता ही गया।  वह धार्मिक नेता बरसों तक अमेरिका में रहा और उसी ने ही ईरान की राजशाही के बाद धार्मिक ठेकेदार होने के साथ ही वहां के शासन को भी अपने हाथ में ले लिया। प्रत्यक्ष अमेरिका का खुमैनी से कोई संबंध नहीं दिखता था मगर उसके नेतृत्व में उस समय ईरान में राजशाही के विरुद्ध चल रहे लोकतात्रिक आंदोलन से उसकी सहमति थी। राजशाही के पतन के बाद वहां खुमैनी के धार्मिक नेतृत्व में बनी सरकार कट्टरपंथी ही थी। दिखाने के लिये अमेरिका ने ईरान में लोकतंत्र स्थापित किया पर सच यह है कि वहां एक उस व्यक्ति को सत्ता मिली जो बाद में उसका   दुश्मन बना।
            धार्मिक उन्मादी प्रचार के भूखे होते हैं।  जिस तरह चार्ली हेब्दों के कार्टूनिस्टों की हत्या हुई है वह मध्य एशिया के धर्म की ताकत बनाये रखने के लिये की गयी है जो केवल प्रचार से मिलती है।     इस धार्मिक उन्माद का सामना करने के लिये पूरे विश्व में धार्मिक आस्था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक ही रूप रखना चाहिये।  यह नहीं हो सकता कि एक देश में आस्था के नाम पर किसी धर्म पर कटाक्ष अपराध तो किसी में एक सामान्य प्रक्रिया मानना चाहिये।  हमारे देश में स्थिति यह है कि भारतीय धर्मोंे पर आक्रमण तो एक सामान्य प्रक्रिया और दूसरे धर्म पर कटाक्ष अपराध मानने की प्रचारजीवियों की प्रवृत्ति हो गयी है।  समस्या यह है कि भारतीय धर्म के ठेकेदार भी कर्मकांडों के ही संरक्षक होते हैं और अध्यात्मिक ज्ञान को एक फालतू विषय मानते हैं।  अध्यात्मिक ज्ञानी अंतर्मुखी होते हैं इसलिये कटाक्ष की परवाह नहीं करते कर्मकांडियों बहिर्मुखी होने के कारण चिंत्तन प्रक्रिया से पर होते इसलिये कटाक्ष सहन नहीं कर पाते।  हमारा तो यह मानना है कि विदेशी विचाराधाराओं के मूल तत्वों पर कसकर टिप्पणी हो सकती है और सहज मानव जीवन के लिये  भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा पर चलने के अलावा कोई विकल्प हो ही नहीं सकता, पर यह ऐसी सोच संकीर्ण मानसिकता की मानी जाती है।  हम इस पर बहस कर सकते हैं और कोई कटाक्ष करे तो उसका शाब्दिक प्रतिरोध भी हो सकता है पर कर्मकांडी किसी कटाक्ष को सहन नहीं करना चाहते। वह बहस में किसी अध्यात्मिक ज्ञानी का नेतृत्व स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिये चिल्लाते हैं ताकि शोर हो जिससे वह प्रचार प्रचार पायें।
            फ्रांस की चार्ली हेब्दो पत्रिका पर हमले को सामान्य समझना उसी तरह भूल होगी जैसे सलमान रुशदी की किताब पर ईरान के धार्मिक तानाशाह खुमैनी के उनके खिलाफ मौत की फतवे को मानकर की गयी थी। शिया बाहुल्य होने के कारण ईरान के वर्तमान शासक  मध्य एशिया में प्रभावी गुट के विरोधी हैं पर वह इस हत्याकांड की निंदा नहीं करेंगे क्योंकि कथित धार्मिक आस्था पर आक्रमण पर स्वयं ही हिंसक कार्यवाहियों के समर्थक हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि इस विषय पर मध्य एशिया की विचारधारा पर बने सभी समूह वैचारिक रूप से एक धरातल पर खड़ मिलेंगे।
            इनका प्रतिकार वैचारिक आक्रमण से किया जा सकता है पर अलग अलग देशों  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नियमों में विविधिता है। जहां आस्था के नाम पर छूट है वहां बहस की गुंजायश कम रह जाती है। इसलिये फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका तथा अन्य पश्चिमी देशों के बुद्धिमान सीधे धार्मिक अंधवश्विास पर आक्रमण करते हैं जबकि एशियाई देशों में  दबी जुबान से यह काम होता है। भारत में तो यह संभव ही नहीं है।  आज भी हमारे देश के बुद्धिजीवी दिवंगत कार्टूनिस्टों की मौत पर सामान्य शोक जरूर जता रहे हैं पर अपने यहां आस्था के नाम पर अभिव्यक्ति की आजादी सीमित रखने का विरोध नहीं कर रहे। शायद उनके लियं यहां भारतीय धर्मों में ही दोष हैं जिन पर गाह बगाहे वह हंसते ही हैं।  कट्टर धार्मिक विचाराधाराओं के विरुद्ध वैचारिक अभियान में पश्चिमी देशों का अनुसरण हमारे देश के बुद्धिजीवी करना ही नहीं चाहते। संभवत भारतीय प्रचार माध्यम सनसनी के सतही आर्थिक लाभ से संतुष्ट हैं और चाहते हैं कि यहां वैचारिक जड़ता बनी रहे।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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