हमारे देश के स्त्रियों के प्रति क्रूरतम अपराध की घटनायें तेजी से बढ़ रही हैं। इसका कारण यह है कि अपराधियों के मन में कठोर दंड का भय नहीं है। हमने पश्चिम के आधार पर अपनी दंड व्यवस्था को कथित रूप से मानवीय बना दिया है जिसमें प्राणदंड देना अपराध पर नियंत्रण करने का मार्ग नहीं माना जाता। यह मूर्खतापूर्ण राय है कि फांसी की सजा से अपराध नियंत्रित नहीं होता। देने वाले तो यह तर्क देते हैं कि हत्या की सजा फांसी है पर उससे क्या वह रुक रही हैं? इसका उत्तर यह है कि हमारे यहां कानूनी प्रक्रिया में लंबा समय लगता है। शनैः शनै अपराधी के अपराध की के प्रति लोगों का नजरिया ठंडा हो जाता है। फिर देखा यह भी जा रहा है कि अपराधियों को सजा दिलाना व्यवस्था से जुड़ी संस्थाओं के लिये कठिन होता जा रहा है इसी कारण अपराधियों के हौंसले बढ़ रहे हैं। इसके जवाब में यह सवाल भी है कि कितनी हत्याओं के लिये कितनों को प्राणदंड मिला। उससे भी ज्यादा यह बुरी बात है कि पद, प्रतिष्ठा और पैसे के दम पर अनेक लोग अपराध कर भी बच जाते हैं। वह समाज के अन्य तबकों के लिये अपराध कर सजा से बचने के मामले में प्रेरक बन जाते हैं। इसी कारण अपराध बढ़ रहे हैं।
मनुस्मृति में कन्याओं के प्रति अपराध के दंड पर कहा गया है कि
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योऽकामां दूषयेत्कन्यां स सद्यो वधमर्हति।
सकामा दूषयंस्तुल्यो न वधं प्राप्नुयान्नरः।।
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योऽकामां दूषयेत्कन्यां स सद्यो वधमर्हति।
सकामा दूषयंस्तुल्यो न वधं प्राप्नुयान्नरः।।
‘‘जो कन्या संभोग की इच्छुक नहीं है उसे बलात संभोग करने वाले पुरुष को तुरंत मृत्युदंड देना चाहिए। स्वयं संभोग की इच्छुक कन्या से सहवास करने वाले व्यक्ति को मृत्युदंड के बजाय उसे कोई दूसरा दंड देना चाहिए।
अभिमह्य तु यः कन्या कुर्याद्दर्पेण मानवः।
तस्याशुकर्त्ये अंगल्यौ दण्डं चार्हतिष्ट्म्।।
तस्याशुकर्त्ये अंगल्यौ दण्डं चार्हतिष्ट्म्।।
‘‘जो पुरुष अपनी पौरुष के मन में आकर कन्या से बलात्कार कर उसे अपवित्र करता है उसकी तत्काल दो उंगलियां काट डालनी चाहिए तथा उस पर आर्थिक दंड लगाना चाहिए।
अक्सर लोग सवाल यह करते हैं कि किसी भी कन्या से बलात संभोग करने वालों को ही क्या जिम्मेदार माना जा सकता है? इसके लिये कन्या को किसी पुरुष को उकसाने के लिये जिम्मेदार क्यों नहीं माना जाता। मनुस्मृति की दृष्टि से हर हालत में पुरुष ही जिम्मेदार है। अगर वह कन्या की इच्छा के खिलाफ जबरदस्ती करता है तो मृत्युदंड का अधिकारी है और अगर इच्छा के विरुद्ध वह नहीं करता तो भी उसे सजा मिलना चाहिए। कुछ घटनाओं में देखा गया है कि लड़कियों को शादी का झांसा देकर कुछ लोग उनके साथ शारीरिक संबंध कायम कर लेते हैं। मामला चलने पर वह दावा करते हैं कि यह सब लड़की की इच्छा से हुआ। वह प्रमाण भी पेश करते हैं तब लोगों की सहानुभूति पीड़ित कन्या की बजाय उसके साथ हो जाती है पर सच बात तो यह है कि वह फिर भी दंड का अधिकारी है।
ऐसा लगता है कि कड़े दंडों की वजह से ही मनुस्मुति को जाति पाति समर्थक तथा स्त्री विरोधी कहकर प्रचलन से बाहर किया गया है जबकि उसमें वर्णित अनेक संदेश आज भी प्रासांगिक हैं। देश के सामाजिक विशेषज्ञ हमारे प्राचीन ग्रंथों से इसलिये मुंह चुराते हैं क्योंकि वह अंग्र्रेजी शिक्षा के कारण डरपोक हो गये हैं जिसमें अपराधों के लिये कड़े दंड की बजाय मानवीय प्रकार के दंड देने क बात कही गयी है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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