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Saturday, June 25, 2011

चाणक्य नीति-आचरण में ज्ञान न दिखे वह निरर्थक (acharan aur gyan-chankya neeti)


       आजकल देश में धन की अधिकता के कारण धार्मिक कार्यक्रम अधिक ही होते हैं। इन कार्यक्रमों पर काला या सफेद चाहे जो भी धन खर्च होता है इस पर हम टिप्पणी नहीं करेंगे पर इनकी तादाद देखते हुए तो यह लगता है कि हमारा देश विश्व में एक आदर्श होना चाहिए पर बढ़ते अपराध, भ्रष्टाचार, व्याभिचार तथा अहंकार को देखते हुए यह नहीं लगता कि किसी को हमसे नैतिकता का उपदेश लेना चाहिए। इसका सीधा मतलब है कि लोग ज्ञान चर्चा करते हैं तो केवल यह दिखाने के लिये कि उनकी मनुष्य देह के अंदर भी एक मनुष्य है। धार्मिक सत्संग वाणी विलास तथा मनोरंजन के रूप में होते हैं। गीत संगीत और काव्य से सजे सत्संग मजा जरूर देते हैं पर उनसे ज्ञान प्राप्त नहीं होता। गीत और भजन में अब कोई अंतर नहीं दिखता। लोग यह दिखाने के लिये अधिक प्रयत्नशील हैं कि वह धर्मभीरु हैं पर आचरण पर उनके ज्ञान की छाया नहीं दिखती।
       इस विषय पर महर्षि चाणक्य अपनी नीति में कहते हैं कि
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           हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हतश्चाऽज्ञानतो नरः।
         हतं निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष्टा ह्यभर्तृकाः।।
       ‘‘अगर मनुष्य के पास ज्ञान है पर उसे आचरण में नहीं लाता तो वह व्यर्थ है। अज्ञानी पुरुष का जीवन निरर्थक है। अज्ञानी पुरुष हमेशा असफल रहता है। उसी तरह सेनापति रहित सेना और स्वामीरहित स्त्रियां नष्ट हो जाती हैं।"
           विकास के नाम पर विनाशलीला अपना रूप दिखा रही है। अपराधों के समाचारों को देखते हुए तो ऐसा लगता है कि जिस हम संस्कृति की बात करते हैं वह कभी की लुप्त हो गयी है। सामाजिक और पारिवारिक रिश्ते नाम के लिये हो गये हैं। धन हैं तो वह भी निभा लो नहीं तो भूल जाओ। पाश्चात्य सभ्यता को विकास का पर्याय माने लेने के बाद हमें भारतीय सस्कृति के प्रति मोह है पर अपनी स्वार्थ पूर्ति तक ही वह रहता है। कहने का अभिप्राय यह है कि ज्ञान हमारे पास खूब है पर आचरण में नहीं है इसलिये ही समाज अब टूटता जा रहा है। ऐसे में समूचे समाज को संबोधित कर उसे सुधरने का उपदेश देने से अच्छा है हम स्वयं आत्ममंथन करें और अपने आचरण सुधारे।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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