भक्ति का संबंध मन के भावों से है-यह अंतिम सत्य है। परमात्मा के स्वरूप के बारे में कोई दावा नहीं कर सकता क्योंकि वह अनंत है। कई लोग कहते हैं कि वह एक है तो ज्ञानी कहते हैं कि न वह एक है न अनेक, न वह गोरा है न काला, न वह स्त्री है न पुरुष न ही वह ज्ञात है न अज्ञात है, बल्कि वह तो अनंत है। उसकी अनुभूति निरंकार भक्ति से भी की जा सकती है न और किसी स्वरूप की मूर्ति बनाकर भी उसे पाया जा सकता है। मुख्य विषय है कि हमारा भाव किस प्रकार का है। मानो तो भगवान नहीं तो वह पत्थर है। वह अनंत परमात्मा भाव पूर्ण भक्ति से ही पाया जा सकता है।
हमारे देश में मूर्ति पूजक तथा उनके विरोधियों की संख्या अधिक है। भारत में प्रवर्तित धर्मों को मूर्ति पूजक मानकर उनका विरोध किया जाता है जबकि अध्यात्मिक दृष्टि से हमारे यहां आकार तथा निराकार दोनों ही रूपों के साथ ही केवल ध्यान योग के माध्यम से भी भक्ति के महत्व को स्वीकार किया जाता है। हमारे अध्यात्म दर्शन की यह खूबी है कि वह मनुष्य की उसकी दैहिक तथा शारीरिक क्षमताओं की सीमाओं के अनुसार परमात्मा की भक्ति के लिये प्रेरित करता है। मूर्ति पूजा एक साधना एक क्रिया है पर साध्य तो परमात्मा की भक्ति पाना है।
इस विषय पर नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि
काष्ठापाषाणाधातूनां कृत्वा भावेद सेवनम्।
श्रद्धया चतथा सिद्धस्तस्य विष्णुंः प्रसीदति।।
‘‘लकड़ी, पत्थर अथवा किसी भी धातु से बनी प्रतिमाओं की सहृदयता से सेवा करना चाहिए। श्रद्धा एवं सदाशयता से सेवा करने पर भगवान विष्णु उत्तम फल प्रदान करते हैं।’’
न देवा विद्यते काष्ठे न पाषाणे न भृन्मये।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावो हि कारणम्।।
‘‘देवता या परमात्मा लकड़ी में नहीं है, पत्थर में विराजमान नहीं है और न ही धातु में विद्यमान है। मिट्टी की प्रतिमा में उसका अस्तित्व नहीं है। परमात्मा का निवास तो भावना में है। जहां भक्ति भावना है वहां वह अवश्य प्रकट होते हैं।’’
काष्ठापाषाणाधातूनां कृत्वा भावेद सेवनम्।
श्रद्धया चतथा सिद्धस्तस्य विष्णुंः प्रसीदति।।
‘‘लकड़ी, पत्थर अथवा किसी भी धातु से बनी प्रतिमाओं की सहृदयता से सेवा करना चाहिए। श्रद्धा एवं सदाशयता से सेवा करने पर भगवान विष्णु उत्तम फल प्रदान करते हैं।’’
न देवा विद्यते काष्ठे न पाषाणे न भृन्मये।
भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावो हि कारणम्।।
‘‘देवता या परमात्मा लकड़ी में नहीं है, पत्थर में विराजमान नहीं है और न ही धातु में विद्यमान है। मिट्टी की प्रतिमा में उसका अस्तित्व नहीं है। परमात्मा का निवास तो भावना में है। जहां भक्ति भावना है वहां वह अवश्य प्रकट होते हैं।’’
हम अगर स्वयं मूर्तिपूजक हैं तो किसी निरंकार के उपासक का मजाक न बनायें। अगर हम निरंकार के उपासक हैं तो मूर्तिपूजक पर न हंसें-यही संदेश हमारा अध्यात्मिक दर्शन देता है। जो लोग मूर्तिपूजा करते हुए उसकी सेवा करते हुए भक्ति निच्छल भाव से करते हैं उनके लिये भी भगवान प्रकट होते हैं और जो निरंकार के उपासक हैं तो उनके हृदय में ही भगवान बसते हैं। मुख्य बात यह है कि भक्ति भाव पवित्र होने के साथ ही उदारतापूर्ण होना चाहिए।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalior
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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