इस सृष्टि का सबसे बुद्धिमान जीव मनुष्य को माना जाता है पर मजे की बात यह है कि अपनी बुद्धि की शक्ति से अनभिज्ञ आदमी विषयों में इस तरह फंस जाता है कि चालाक लोग दूसरों को भेड़ों की तरह हांक लेते हैं। अगर हम वर्तमान हालातों को देखें तो यह बात सामने आती है कि हमारे देश के लोगों का एक बहुत बड़ा वर्ग क्रिकेट, फिल्म तथा अन्य प्रकार के मनोरंजन के साधनों में अपनी बुद्धि यह जानते हुए भी लिप्त कर रहा है कि उनके प्रभाव अच्छे नहीं है। फिल्मों में उन काल्पनिक कथानकों पर आधारित होती हैं जिनका समाज की स्थिति से कोई संबंध नहीं है। इतना ही नहीं मनोरंजन के यह सब विषय न केवल समाज का काल्पनिक चित्रण प्रस्तुत कर लोगों को डरपोक बना रहे हैं बल्कि उनसे सट्टबाजी,जुआ और शराब के सेवन की प्रवृत्तियों को भी प्रोत्साहन भी मिल रहा है। लोग जानते हैं कि इन विषयों मेें आसक्ति का परिणाम विष पीने जैसा है मगर फिर भी लिप्त हो रहे हैं।
महान नीति विशारद कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में कहते हैं कि
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स्निग्धदीपशिखालोकविलेभितक्लिोचनः।
मृत्युमृच्छत्य सन्देहात् पतंगः सहसा पतन्।।
"दीपक की स्निग्ध शिखा के दर्शन से जिस पतंगे के नेत्र ललचा जाते हैं और वह उसमें जलकर जान देता है। यह रूप का विषय है इसमें संदेह नहीं है।"
गन्धलुब्धो मधुकरो दानासवपिपासया।
अभ्येत्य सुखसंजवारां गजकर्णझनज्झनाम्
"गंध की वजह से लोभी हो चुका दान मद रूपी आसव पीने की इच्छा करने वाला भंवरा सुख का अनुभव कराने वाली झनझन ध्वनि हाथी के कान के समीप जाकर मरने के लिये ही करता है।"
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स्निग्धदीपशिखालोकविलेभितक्लिोचनः।
मृत्युमृच्छत्य सन्देहात् पतंगः सहसा पतन्।।
"दीपक की स्निग्ध शिखा के दर्शन से जिस पतंगे के नेत्र ललचा जाते हैं और वह उसमें जलकर जान देता है। यह रूप का विषय है इसमें संदेह नहीं है।"
गन्धलुब्धो मधुकरो दानासवपिपासया।
अभ्येत्य सुखसंजवारां गजकर्णझनज्झनाम्
"गंध की वजह से लोभी हो चुका दान मद रूपी आसव पीने की इच्छा करने वाला भंवरा सुख का अनुभव कराने वाली झनझन ध्वनि हाथी के कान के समीप जाकर मरने के लिये ही करता है।"
मनुस्मृति में प्रमाद न करने का संदेश दिया जाता है। दरअसल जीवन में आनंद उठाने के लिये अपनी इंद्रियों में अनुभूति का भाव स्थापित करने की कला आना चाहिए। तब हम फूलों की सुगंध को सूंघकर, पेड़ों की हवा के देह को स्पर्श करने पर और नदी या झील में बहते हुए जल को देखकर प्रकृति प्रदत्त मनोरंजन का सुख लिया जा सकता है। सांसरिक विषयों की प्रस्तुति में मनोरंजन की अनुभूति करने का मतलब यह कि हम आनंद का अर्थ ही नहीं जानते। सच तो यह है कि सांसरिक द्वंद्वों में रुचि लेना मनुष्य का स्वभाव है। यही कारण है कि आजकल खेलों तथा उनके प्रचार में सद्भावना कम द्वंद्व का प्रचार अधिक किया जाता है। एक टीम या खिलाड़ी को हारते तो दूसरे को जीतते देख लोग खुश हो जाते हैं पर यह नहीं जानते कि यह सब उनके जेब से माया के हरण के लिये किया जा रहा है। फिर मनोरंजन केवल आंखें, मुख तथा कान तक सीमित होकर रह जाता है, हृदय को छू तक नहीं पाता। ऐसे में समय, पैसा तथा मानसिक तथा दृढ़ता में गिरावट के अलावा कोई दूसरा फल नहीं मिलता।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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