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Saturday, February 19, 2011

माया के खेल को आदमी अपना समझता है-हिन्दी धार्मिक विचार (maya ke khel aur aadmi-hindi dharmik vichar)

इस संसार में माया का खेल अत्यंत विचित्र है। जिसके पास कम है वह उसे बढ़ाने के लिये संघर्षरत है और जिसके पास है वह उसकी सुरक्षा को लेकर परेशान है। पैसा नहीं है तो दिन का चैन हराम है नहीं है तो उसके खोने, छिनने या लुटने के भय रात की नींद गायब है। पैसा मित्र जुटाकर देता है तो शत्रु भी पैदा करता है। जो लोग यह सोचकर धन का संचय करते हैं कि उनका परिवार तथा रिश्तेदार उसका उपयोग या उपभोग कर कृतज्ञ होंगे और समाज इज्जत करेगा पर जब अपने उसका अधिकार की तरह उपयोग करते हैं असामाजिक तत्व वक्र दृष्टि डालकर उसे लूटने के लिये योजनाऐं बनाते हैं तो आदमी हताश और भयभीत होकर जीवन गुजारता है।
इस विषय में संत कबीरदास जी कहते हैं कि
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माया दासी संत की साकट की शिर ताज
साकुट की सिर मानिनी, संतो सहेली लाज
" माया तो संतों के लिए दासी की तरह होती है पर अज्ञानियों का ताज बन जाती है। अज्ञानी लोग का माया संचालन करती है जबकि संतों के सामने उसका भाव विनम्र होता है।"
गुरू का चेला बीष दे, जो गांठी होय दाम
पूत पिता को मारसी, ये माया के काम
" शिष्य अगर गुरू के पास अधिक संपत्ति देखते हैं तो उसे विष देकर मार डालते है और पुत्र पिता की हत्या तक कर देता है।"
माया तो सभी के पास आनी है। संत हो या मज़दूर सभी के पास माया अपनी अपनी नियति के अनुसार आती जाती है। सेठों के घर भी विराजती है तो डकैतों को भी भाती है। अलबत्ता संत उसके साथ दासी की तरह व्यवहार करते हैं मगर कुछ लोग हैं जो उसके मद में अंधे हो जाते हैं। वह ताज की तरह उनके मन मस्तिष्क पर राज करती है। स्थिति यह है कि अनेक धनपति जब वृद्ध हो जाते हैं तो उनके वही कुटुंबीजन उनकी मौत की कामना करते हैं। कहंी कहीं तो ऐसा भी होता है कि पिता के पाप के धन का उपयोग करते हुए पुत्र इतना पापाचारी हो जाता है कि वह अपने पिता की हत्या तक कर डालता है। कहीं कहीं शिष्य अपने ही गुरु को मार डालते हैं ताकि वह उसके बाद गुरु का पद और धन हड़प सकें। लब्बोलुआब कहने का यही है कि खेलती है माया और आदमी अपनी पूरी जिंदगी इस भ्रम में गुजार देता है कि वह खेल रहा है।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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