जीवन में उतार चढ़ाव आते हैं। यदि मनुष्य सतर्कता, सजगता तथा परिश्रम से सक्रिय रहे तो उसके पास समय आता है। कहा भी जाता है कि भगवान के यहां देर है पर अंधेर नहीं। अपने अंदर आत्मविश्वास हमेशा रखना चाहिये। इस बात को मन ही मन दोहराना चाहिए कि एक न एक दिन हमारा समय भी आयेगा। इस कुंठा को मन में स्थान नहीं देना चाहिए कि हमारा भाग्य खराब है या हमारी कर्म शक्ति में क्षीणता है इसलिये सीधे मार्ग से कोई उपलब्धि नहीं मिलेगी। अपने जीवन में संक्षिप्त राह अपनाने या अपने से बड़ों का चाटुकारिता इस आशा से करना कि वह कोई मदद करेंगे,एकदम बेकार है। दूसरों का मुख ताकने से कोई लाभ नहीं होता।
इस विषय में भर्तृहरि महाराज का कहना है कि
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किं कन्दाः कन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा वा गिरिभ्यः
प्रघ्वस्ता तरुभ्यः सरसफलभृतो वल्कलिन्यश्च शाखाः।
वीक्ष्यन्ते यन्मुखानि प्रस्भमपगतप्रश्रयाणां खलानां
दुःखाप्तसवल्पवित्तस्मय पवनवशान्नर्तितभ्रुलतानि ।।
"वन और पर्वतों पर क्या फल और अन्य खाद्य सामग्री नष्ट हो गयी है या पहाड़ों से निकलने वाले पानी के झरने बहना बंद हो गये हैं? क्या वृक्षों से रस वाले फलों की शाखायें नहीं रहीं हैं। उनसे तो तन ढंकने के लिये वल्कल वस्त्र भी प्राप्त होते हैं। ऐसा क्या कारण है कि गरीब लोग उन अहंकारी और दुष्ट लोगों की और मुख ताकते हैं जिन्होंनें थोड़ा धन अर्जित कर लिया हैं।"
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किं कन्दाः कन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा वा गिरिभ्यः
प्रघ्वस्ता तरुभ्यः सरसफलभृतो वल्कलिन्यश्च शाखाः।
वीक्ष्यन्ते यन्मुखानि प्रस्भमपगतप्रश्रयाणां खलानां
दुःखाप्तसवल्पवित्तस्मय पवनवशान्नर्तितभ्रुलतानि ।।
"वन और पर्वतों पर क्या फल और अन्य खाद्य सामग्री नष्ट हो गयी है या पहाड़ों से निकलने वाले पानी के झरने बहना बंद हो गये हैं? क्या वृक्षों से रस वाले फलों की शाखायें नहीं रहीं हैं। उनसे तो तन ढंकने के लिये वल्कल वस्त्र भी प्राप्त होते हैं। ऐसा क्या कारण है कि गरीब लोग उन अहंकारी और दुष्ट लोगों की और मुख ताकते हैं जिन्होंनें थोड़ा धन अर्जित कर लिया हैं।"
जीवन में दूसरों से अपेक्षा करना या अपने काम के लिये निर्भर रहना अंततः दुःख का कारण बनता है। यदि कोई मदद करता भी है तो उसका कोई स्वार्थ होता है। कई बार तो यह कि मदद से अधिक तो वह अपने स्वार्थ पूरे करते हैं। कई बार तो होता यह है कि बड़े लोग आश्वासन देकर छोटों से काम कराकर अपने कहे से मुकर जाते हैं। ऐसे में बेहतर यही है कि अपनी योग्यता, शक्ति और उपलब्ध साधनों के सामर्थ्य के अनुसार काम प्रारंभ करना चाहिए। अपने काम से उपलब्धि की आशा भी उतनी ही करना चाहिए जितनी तर्कसंगत स्वयं को लगे। न दूसरों के कहने पर अपनी आशाओं को विस्तार देना चाहिए और न किसी अपना काम छोड़कर बेफिक्र होने की सोचें।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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