सुरा वै मनमन्नानां पाप्मा च मलमुच्यते।
तस्माद् ब्राह्मणराजन्यौ वैश्यश्च न सुरां पिबेत्।
हिन्दी में भावार्थ-सभी अन्नों के मल को सुरा कहा गया है मल का ही दूसरा नाम पाप है। अतः विद्वान, शक्तिशाली तथा व्यवसायियों को कभी सुरापान नहीं करना चाहिये।
तस्माद् ब्राह्मणराजन्यौ वैश्यश्च न सुरां पिबेत्।
हिन्दी में भावार्थ-सभी अन्नों के मल को सुरा कहा गया है मल का ही दूसरा नाम पाप है। अतः विद्वान, शक्तिशाली तथा व्यवसायियों को कभी सुरापान नहीं करना चाहिये।
यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांसं सुरासवम्।
तद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हवि।।
हिन्दी में भावार्थ-मदिरा, मांस सुरा, आसव यक्षांे, राक्षसों व पिशाचों द्वारा सेवन किये जाने वाले पदार्थ हैं। अतः देवताओं की पूजा करने वाले इनका सेवन न करें।
तद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हवि।।
हिन्दी में भावार्थ-मदिरा, मांस सुरा, आसव यक्षांे, राक्षसों व पिशाचों द्वारा सेवन किये जाने वाले पदार्थ हैं। अतः देवताओं की पूजा करने वाले इनका सेवन न करें।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कहने को तो हमारे देश में धार्मिक प्रवृत्ति वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है पर दूसरा तथ्य यह भी है कि शराब, मांस और जुआ जैसी प्रवृत्तियों के पोषक भी उतनी ही संख्या में बढ़ रहे हैं। बात तो लोग संस्कारों और संस्कृति की करते हैं पर आधुनिकता के नाम राक्षसी और पैशाचिक प्रवृत्तियों के संवाहक बनते जा रहे हैं। मुंह में देवताओं का नाम और व्यवहार में पिशाचों का काम करते हुए लोग जरा भी संकोच नहीं करते।
आपने देखा होगा कि हमारे टीवी चैनल और समाचार पत्र पत्रिकायें अपने देश भारत की वैदिक विवाह परंपरा की प्रशंसा करते हुए नहीं अघाते। कहीं कोई विदेशी इस परंपरा का निर्वाह करता है तो समाचार प्रकाशित होते हैं। सच तो यह है कि हमारी कथित संस्कृति और संस्कार कुछ कर्मकांडों तक ही सिमट गये हैं। अपनी संस्कृति और संस्कारों की प्रशंसा करने वाले यह कहते हुए नहीं अघाते कि हमारे देश में ‘तैंतीस करोड़ देवता रहते हैं’। मगर इन्हीं कर्मकांडों के निर्वाह के समय शराब और मांस का सेवन आधुनिकता का प्रमाण बन गया है। विवाह हों या कोई अन्य सामूहिक कार्यक्रम उसमें शराब का सेवन करने को समाज ने मान्यता दी है यह जाने बिना कि इसका सेवन यक्ष, राक्षस तथा पिशाच करते हैं। मांस खाने की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही है। हम यहां मांस या शराब का सेवन करने वालों पर कोई आक्षेप नहंी करना चाहते बल्कि समाज की सोच पर ही प्रश्न उठा रहे हैं।
विवाह एक धार्मिक संस्कार है जिसका पालन करते हुए लोग फूले नहीं समाते। अभी हाल ही में बिना विवाह ही युवक युवतियों के साथ रहने को कानूनी मान्यता मिलने पर अनेक संस्कार और संस्कृति के ठेकेदारों ने बहुत शोर मचाया था पर इसी पवित्र विवाह संस्कार के समय शराब के सेवन पर सभी चुप क्यों हो जाते है? इसके विरुद्ध कोई प्रचार क्यों नहीं करते? यह सोच का विषय है। इतना ही नहीं हमारे देश में कुछ जगह तो मंदिरों में शराब भी प्रसाद के रूप मेंचढ़ाने की परंपरा प्रचलन में आई है। ताज्जुब इस बात का है कि इस पर किसी भी धार्मिक प्रवृत्ति को आपत्ति करते हुए नहीं देखा। देश में शराब को जिस तरह एक सामान्य आदत के रूप में मान्यता मिली है वह चिंता की बात है और समाज को इस बात पर विचार करना चाहिये कि यह सामान्य मनुष्य द्वारा उपभोग में लाया जाने वाला पदार्थ नहीं है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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2 comments:
ek bahoot achchha lekh....
kunwar ji,
धर्म के जानकार लोगों से माफी सहित ....
धर्म के बारे में लिखने ..एवं ..टिप्पणी करने बाले.. तोता-रटंत.. के बारे में यह पोस्ट ....मेरा कॉमन कमेन्ट है....
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_27.html
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