आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिषा धर्मनित्यता।
यमर्थान्नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-मनुष्य को पांच गुण-अपने बारे में ज्ञान, उद्योग, सहनशीलता, दृढ़ता और धर्म में स्थिरता- पुरुषार्थ से विचलित नहीं कर सकते और वही ज्ञान या पंडित कहलाता है।
निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते।
अनास्तिकः श्रद्धान एतत पण्डितलक्षणम्।।
हिन्दी में भावार्थ- जो मनुष्य सत्कर्म करते हुए बुरे कर्मों से दूर रहने के साथ परमात्मा में आस्था और श्रद्धा रखता उसे ही ज्ञानी या पण्डित कहना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने जीवन में कोई भी काम प्रारंभ करने से पहले अपनी स्वयं की स्थिति, सामथ्र्य तथा सहायको का विचार करना चाहिये। जब स्थिति अनुकूल लगे तो अपने कार्य को संपन्न करने के लिये पुरुषार्थ करना ही श्रेयस्कर है और उसमें विलंब करना भी दुःखदायी होता है। इसके साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि कभी अपने हाथ से धर्म की हानि न हो। जो व्यक्ति योजनाबद्ध ढंग से कार्य करते हैं उनकी सफलता निश्चित है और वही समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। अपनी क्षमता से अधिक तथा कल्पनातीत वस्तुओं को पाने का मोह आदमी को अपने जीवन में कष्ट के अलावा कुछ नहीं देता।
एक बात निश्चित है कि बुरे काम का बुरा परिणाम सामने आता ही है। इतना ही नहीं कुसंग करने का धीरे धीरे स्वयं पर भी प्रभाव पड़ने लगता है जिससे आदमी धार्मिक कार्यक्रमों से विरक्त होकर व्यसनों की तरफ आकर्षित होने लगता है। अतः जीवन में हमेशा अपनी स्थिति, क्षमता, सहायक के बारे में विचार करते हुए धर्म में स्थित रहना चाहिये। तभी जीवन सफल और शांतिपूर्ण रह सकता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर
Sunday, January 24, 2010
विदुर नीति-पांच गुण होने पर आदमी विचलित नहीं होता (panch gun aur insan-vidur niti)
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