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Tuesday, November 17, 2009

चाणक्य नीति-भोजन की नहीं धर्म संग्रह की चिंता करें (bhojan aur dharm-chankya neeti in hindi)

नाहारं  चिन्तयेत् प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत्।

आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते।।

हिन्दी में भावार्थ-
विद्वान मनुष्य  को भोजन तथा अन्य प्रकार की सभी चिंताएं छोड़कर केवल धर्म संग्रह की चिंता करना चाहिए। आहार की चिंता क्या करना वह तो मनुष्य के जन्मते ही उत्पन्न हो जाता है।

वयसः परिणामेऽयः खलः खलः एव सः।

सुपक्वमपि माधुर्य नोपयातीन्द्रवारुणम्।।

हिन्दी में भावार्थ-
अवस्था के परिपक्व हो जाने पर जिस मनुष्य में दुष्टता की प्रवृत्ति होती है उसमें फिर कभी बदलाव नहीं आता जैसे अत्यंत पक जाने पर इन्द्रायण  के  फल में मिठास नहीं आता बल्कि वह कड़वा ही बना रहता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने भोजन की इतनी अधिक चिंता करता है उतनी शायद पशु भी नहीं करते। स्थिति यह होती है कि उसने अपने परिवार के लिये पूरे जीवन के लिये भोजन की व्यवस्था कर ली तो फिर उसे आने वाली पीढ़ियों के भोजन की चिंता लग जाती है। भूख से मरने का भय उसे हमेशा सताता है और इसलिये हमेशा डरते हुए जीवन गुजारता है।  सच तो यह है कि यह संभावित भूख उसे गुलाम बनाये रखती है।  जबकि वास्तविकता यह है कि मनुष्य को अपने धर्म संग्रह की चिंता करना चाहिये क्योंकि भोजन तो उसके जन्मते ही उत्पन्न हो जाता है।

मनुष्य में जो गुण बचपन में पड़ गया फिर उसे वह परे नहीं होता। उसी तरह दुर्गुण भी स्थापित हो गया तो वह उससे कभी मुक्त नहीं हो सकता।  कहने वाले जरूर कहते हैं कि बड़े होकर बच्चा सुधर जायेगा पर यह केवल आशा ही है।   इसलिये परिवार के बच्चों को हमेशा अच्छे संस्कार डालने का प्रयास करना चाहिये। बड़े होने पर उनसे आशा तभी की जा सकती है।



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1 comment:

Unknown said...

bahut keemtee sootra !
bahut bahut dhnyavaad !

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