कदाचित् कुपितं मित्रं सर्व गुह्य प्रकाशयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-कुमित्र पर तो विश्वास करना ही नहीं चाहिए। सुमित्र को भी अपने गुप्त भेद न बतायें तो अच्छा क्योंकि नाराज होने पर वह दूसरे के सामने प्रकट कर सकता है।
मनसा चिन्तितं कार्य वाचा नैव प्रकाशयेत्।
मन्त्रेण रक्षपेद् गूढ़ं कार्ये चाऽप नियोजयेत्।।
हिंदी में भावार्थ-मन के द्वारा सोचे हुए कार्यों को अपने मुख से कभी प्रकट नहीं करना चाहिये। जब तक अपना कार्य पूरा न हो तो तब अपने प्रयास तथा योजना गुप्त मंत्र की तरह रक्षा करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अनेक लोगों के कार्य केवल इसलिये ही संपन्न नहीं हो पाते क्योंकि वह उनका पहले से प्रचार कर देते हैं। ‘मैं अमुक कार्य कर रहा हूं’, कहकर वह लोग आत्ममुग्ध हो जाते हैं पर उनको यह आभास नहीं रहता कि उस प्रचार के बाद अनेक लोग गुप्त रूप से उनका विरोध शुरु कर वह काम नाकाम कर देते हैं। अनेक बार ऐसे आदमी के सामने अपना प्रचार करते हैं जिसके बारे में उनको पता है कि वह मित्र नहीं बल्कि विरोधी है-उस समय उनको लगता है कि हम उस पर अपना प्रभाव जताकर विजय प्राप्त कर रहे हैं पर यह अहंकार तब धरा का धरा रह जाता है जब कार्य संपन्न नहीं हो पाता है।
भावावेश में अनेक बार आदमी अपने मित्र को अपने गुप्त रहस्य बता देता है। उस समय मन बोझ हल्का करने के लिये यह उचित भले लगता हो पर कालांतर में उसके भी दुष्परिणाम प्रकट हो सकते हैं जब मित्र नाराज होकर किसी अन्य को यह रहस्य बता देता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जहां तक हो सके अपने अभियान और योजनाऐं गुप्त रखकर उनके संपन्न होने की प्रतीक्षा करें न कि उनकी पहले से ही हवा निकालें। पहले से प्रचारित कार्य या अभियान पूर्ण न होने पर जगहंसाई होती है यह बात निश्चित है।
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