युक्त इत्युच्यते योगी समोलोष्टाश्मकांचनः।।
हिंदी में भावार्थ-भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि जो ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, जिसकी स्थिति विकार रहित है, जिसकी इंद्रियां भलीभांति जीती हुई है और जिसके लिये मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान है वह योगी, युक्त अर्थात भगवत्प्राप्त ऐसा कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अनेक कथित विद्वान भगवान श्रीकृष्ण के निष्काम भाव से कर्म के संदेश का गलत भाव ही लेते हैं। दरअसल इसका स्पष्ट आशय यह है कि मनुष्य कभी स्थिर नहीं रह सकता और इसलिये समाज भी परिवर्तन शील है और सभी मनुष्यों को भक्ति और ज्ञान के साथ अपना दायित्व निर्वाह भी करना चाहिए। वह ज्ञान के साथ विज्ञान की प्राप्ति पर भी अपना मत व्यक्त करते हैं। इसका अर्थ स्पष्ट है कि मनुष्य को निंरतर सक्रिय रहना चाहिये तभी वह अपनी रक्षा कर सकता है। उसमें नित नयी चीजों के निर्माण और उनके प्रयोग की प्रवृत्ति हो न कि रूढ़ियों और अंधविश्वासों में बंधकर यथास्थितिवादी होकर वह रहे।
वह एक सक्रिय समाज चाहते हैं। आपने सुना होगा कि अनेक मूर्ख लोग कहते हैं कि ‘अमुक ज्ञानी है तो फिर काम क्यों करता है?’
दरअसल जो वास्तव में ज्ञानी होगा वह हमेशा सक्रिय रहेगा। हां, वह अपने दैहिक कर्म से मिलने वाले फलरूपी धन या साधन को अंतिम नहीं मानता क्योंकि उससे प्राप्त फल तो अन्य दैहिक दायित्वों की पूर्ति में लगाता है। जो लोग श्रीगीता को सन्यास के लिये प्रवृत्त करने वाली बताते हैं वह घोर अज्ञानी है यह इसी श्लोक से समझा जा सकता है। सन्यास निष्क्रियता में नहीं वरन् फल के स्वरूप को समझने में है। सच बात तो यह है कि कुछ विद्वान श्रीगीता की सही व्याख्या न कर उसे केवल भक्ति करने वाला ही ग्रंथ इसलिये प्रचारित करते हैं क्योंकि उनको नहीं लगता कि समाज में चेतना आये।
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