कामादर्थ वृणीते यः स वै पण्डित उच्चयते।।
हिंदी में भावार्थ-जिसकी सांसरिक बुद्धि धर्म और अर्थ के मार्ग पर चलती है वही भोग का मोह छोड़कर पुरुषार्थ करता है वही पण्डित कहलाता है।
यथाशक्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्ति च कुर्वते।
न किंचिदमवन्यन्ते नरा पण्डितबुद्धयः।।
हिंदी में भावार्थ-अपनी बुद्धि और विवेक के सामथ्र्यानुसार जो मनुष्य किसी काम को छोटा न समझते यथायोग्य काम करते हैं वह पण्डित कहलाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पण्डित या विद्वान कहलाने का मोह तो हर आदमी में होता है-उन लोगों को भी जिन्होंने अपने जीवन किसी किताब का एक अक्षर भी नहीं पढ़ा हो। कई लोग तो ऐसे भी हैं जिन्होंने कोई किताब पढ़ने की बजाय सुना भर हो उस पर ही अपनी प्रतिक्रिया देकर अपने को विद्वान समझते हैं। इस संदर्भ में हम अपने देश के हिंदी कवियों और शायरों को देख सकते हैं। देश की एकता और अखंडता के लिये लिखने वाले अनेक कवि और भारतीय धर्म ग्रंथों को पढ़ना त्यागने की बात कहकर केवल प्रेम और मानवता के लिये काम करने का आव्हान करते हैं। वह गैर भारतीय धर्म ग्रंथों के नाम भी उनके साथ जोड़कर सांप्रदायिक सद्भाव का प्रचार करते हैं मगर सच यह है कि इन कवियों और शायरों ने भारतीय धर्म ग्रंथ कभी नहीं पढ़े होते केवल इधर उधर से सुनकर-वह भी केवल निंदात्मक एवं नकारात्मक रूप से व्याख्या करने वालों की बात धारण कर-कवितायें गड़ लेते हैं। इनमें कई कवि, शायर और निबंधकार तो देश विदेश में नाम भी कमा चुके हैं पर यह अलग बात है कि भारतीय जनमानस में उनका कोई अधिक स्थान नहीं है। ऐसे विद्वान या पण्डित कवि और शायर भले ही अनेक प्रकार के राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं पर भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान में सराबोर देश के जागरुक लोग उनकी अयोग्यता को जानते हैं और आम भारतीय भी उनकी बात को सुनकर अनसुना करता है। शायद यही कारण है कि आजकल लोग कहते हैं कि लिखने से कुछ नहीं होता क्योंकि उनका लिखा केवल वाद और नारों की सीमाओं में सिमटा हुआ है।
ऐसे व्यवसायिक कवि, शायर और निबंधकार केवल धन और सम्मान पाने के लिये लिखते हैं पर उनका सतही लेखन समाज को प्रभावित नहीं करता। सच बात तो यह है तुलसी, कबीर, और रहीम जैसे विद्वानों ने भी अपनी रचनायें की पर उनकी रचनायें सत्य के निकट थी और इसलिये आज भी उनको केवल विद्वान ही नहीं बल्कि महापुरुषों की श्रेणी में रखा जाता है।
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