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Saturday, August 1, 2009

चाणक्य नीतिः विदेश में विद्या और देश में स्त्री होती है सच्ची मित्र (chankya niti-nari aur vidya hoti hai dost

विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या गृहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि विदेश में विद्या और घर में स्त्री ही पुरुष की मित्र होती है। बीमार आदमी के लिये औषधि और मृतक का मित्र उसका धर्म होता है।
तृपां ब्रह्मविदः स्वर्गतुणं शूरस्य जीवितम्।
जिताऽशस्य तृणं नारी निःस्मृहस्य तृणं जगत्।।
हिंदी में भावार्थ-
ब्रह्मज्ञानी के लिए स्वर्ग एक तिनके, शूरवीर के लिये जीवन, संयमी के लिये नारी, और कामनाओं से रहित मनुष्य के लिये संसार तिनके समान है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मित्रता को लेकर अनेक तरह के लोग भ्रम पालते हैं जबकि सच यह है कि अपने पास जो ज्ञान, अनुभव और आधुनिक शिक्षा है वह विदेश में मित्रता निभाती है। कुछ लोग अपने पास ज्ञान, शिक्षा और कार्य के अनुभव न होने पर भी दूसरों के कहने पर अपना शहर या देश छोड़ देते हैं जिससे उनको बाद में धोखा मिलता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिसमें विदेश जाने के इच्छुक लोगों ने अपना घर छोड़ा पर बाहर जाकर उनको भारी तकलीफ झेलनी पड़ी। उसी तरह अपने ही शहर या देश में अपने साथ काम करने वाले सहकर्मी या व्यसनी साथियों को लोग अपना मित्र समझ लेते हैं जबकि सच यह है कि घर की स्त्री ही पुरुष की सबसे सच्ची मित्र होती है। भले ही घर की स्वामिनी अपनी वाणी से कभी इस बात को नहीं जताती मगर पुरुष के लिये अपने देश और शहर में सच्चे मित्र की भूमिका उससे बेहतर कोई नहीं निभा सकता। उसकी उपेक्षा कर दूसरों की सलाह पर काम करने वाला कभी भी जीवन में सफल नहीं होता। विवाह से पूर्व पुरुष के साथ माता और बहिन मित्र की भूमिका निभाती है तो विवाह बाद उसकी पत्नी यही दायित्व उठाती है। जो लोग अपनी स्त्री पर विश्वास नहीं करते उनके लिये जीवन हमेशा कष्टप्रद हो जाता है।

कर्मकांड का निर्वाह कर स्वर्ग पाने का विचार एकदम भ्रम है। भारतीय अध्यात्म को छोड़कर अन्य विचारधारायें मनुष्य को स्वर्ग पहुंचाकर वहां सुख पाने का भ्रम दिखाती हैं। स्वर्ग नाम की चीज इस सृष्टि में है ही नहीं। तत्वज्ञानी इस बात को जानते हैं। अगर मनुष्य जीवन में योग साधना, नियम और संयम से कार्य करे तो वह इसी देह के साथ ही यहां इस धरती पर स्वर्ग भोग सकता है वरना तो उसके लिये भटकाव के अलावा और कुछ नहीं है। अगर कहीं स्वर्ग भी है तो वह अपनी अनुशासनीनता, लालच और लोभ की प्रवृत्तियों के कारण वह आनंद नहीं उठा सकता। वहां भी वह इस बात पर विचलित होगा कि दूसरे लोग स्वर्ग क्यों भोग रहे हैं?
दैहिक सुख हमेशा इंद्रियों से भोगा जाता है और इसके नष्ट होने के बाद भोग और रोग की अनुभूति समाप्त हो जाती है और साथ में सुख और योग का भी नाम तक नहीं रहता। इसलिये इसी देह से जितना हो सके मनुष्य भगवान भक्ति कर जीवन सुधार ले यही एक बेहतर तरीका है।
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1 comment:

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

दीपक जी आप एक महान कार्य कर रहे हैं | हमारी शुभ कामनाएं आपके साथ हैं |

ब्लॉग जगत को देखिये, ज्यादातर उल-जलूल लिख कर वाह वाही लुट रहे हैं | followers की लम्बी कतार लगा रहे लोग | अच्छा या सार्थकता से कोई मतलब ही नहीं इनका |

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