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Thursday, July 30, 2009

विदुर नीति-धनी के भाग्य में गरीब जैसी भूख नहीं होती (vidur niti-garib aur amir ki bhookh)

सम्पन्नतरमेवान्नं दरिद्र भुंजते सदा।
क्षुत् स्वादुताँ जनयति सा चाढ्येषु सुदुर्लभा।।
हिंदी में भावार्थ-
निर्धन पुरुष सदा ही स्वादिष्ट भोजन करते हैं, क्योंकि भूख उनके भोजन में स्वाद उत्पन्न करती है और ऐसी भूख धनियों के लिये दुर्लभ है।
प्राषेण श्रीमतां भोक्तं शक्तिनं विद्यते।
जीर्वन्यपि हि काष्ठानि दरिद्राणां महीपते।।
हिंदी में भावार्थ-
इस दुनियां में धनियों में भोजन करने की शक्ति नहीं होती जबकि गरीब तो लकड़ी भी पचा जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-यह एक वैज्ञानिक सत्य है कि जितना शरीर को चलायेंगे उतना ही वह चलेगा। वर्तमान समय में भौतिक सुख साधनों की अति उपलब्धता ने धनी लोगों को शारीरिक परिश्रम से परे कर दिया है और इसलिये उनको बीमारियां भी अधिक होती हैं। अगर ध्यान से देखें तो पता लगेगा कि देश में अमीर लोगों की संख्या भी बढ़ी है- भले ही गरीबों की तुलना में वह कम है-उतनी ही बीमारों की संख्या भी बढ़ी है। हर शहर में फाइव स्टार होटलों की तरह दिखने वाले अस्पताल बने दिख जायेंगे। मधुमेह, उच्चरक्तचाप, हृदय रोग तथा कब्जी जैसी बीमारियां राजयोग मानी जाती हैं और अधिकतर अस्पतालों में इन्हीं के इलाज करने वाले बोर्ड पढ़े जा सकते हैं। उनमें गरीबों को होने वाली बीमारियों की चर्चा कम ही होती है।

वैसे यह भी माया का खेल है कि जिनको भूख लगती है उनके लिये खाना मिलता नहीं क्योंकि वह गरीब परिश्रम से जीविका कमाते हैं और सभी जगह शारीरिक परिश्रम को हेय दृष्टि से देखते हुए उनको कम धन ही दिया जाता है। इसके विपरीत दिमागी श्रम वालों को भुगतान अधिक किया जाता है पर फिर उनको भूख नहीं लगती। शरीर का यह नियम है कि जितना अन्न जल ग्रहण करो उतना ही विसर्जन करो। इस नियम के विपरीत चलना अपने को बीमार बनाना है और इसका इलाज केवल परिश्रम या व्यायाम से ही हो सकता है। दवाईयों का सेवन तो अपने दिमाग को संतोष देने के लिये है। .
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

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