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Sunday, March 8, 2009

भर्तृहरि शतकः प्रथ्वी पर जीवों में विविधता स्वभाव के अनुसार ही होती है

वैराग्ये संचरत्तयेको नीतौ भ्रमति चापरः
श्रृंगारे रमते कश्चिद् भुवि भेदाः परस्परम्

इस दुनियां में कोई वैरागी होकर मोक्ष प्राप्त करना चाहता तो कोई नीति शास्त्र का अध्ययन कर रहा है कोई कोई तो श्रृंगार रस का आनंद उठा रहा है। इस भूमि पर रहने वाले प्राणियों के स्वभाव अलग अलग हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पांचों उंगलियां बराबर नहीं हैं। प्रकृत्ति में जो विविधता है उसी में संसार को चलने वाली प्रक्रिया में सामंजस्य छिपा हुआ है। अगर पांचों उंगलियां बराबर होती तो शायद इंसान काम नहीं कर पाता। आज कंप्यूटर युग में जरा अपनी उंगलियों का अवलोकन करें। अगर उंगलियां बराबर होती तो क्या इसके कीबोर्ड पर काम किया जा सकता था? कतई नहीं! उंगलियां छोटी बड़ीं हैं इसलिये कीबोर्ड पर नाचते समय आपस में नहीं टकराती। हम उन्हें पंक्ति में एक साथ इसलिये खड़ा कर पाते हैं क्योंकि वह छोटी बड़ीं हैं। अगर कल्पना करें यह समान लंबाई की होती तो इन्हें एक पंक्ति में खड़ा कर काम नहीं कर सकते थे। हमारे पांवों की उंगलियां भी बराबर नहीं हैं। अगर वह बराबर होती तो हम अपनी देह के बोझ को उन पर खड़ा नहीं कर पाते। यह विविधता ही शरीर को लचीला बनाये रखते है।

इसी तरह जीवों के स्वभाव की विविधता की वजह से ही यह संसार चल रहा है। यह अंतर मनुष्यों में भी है। कुछ लोगों का स्वभाव हमें रास नहीं आता पर उस पर चिढ़+ना नहीं चाहिए। सभी लोगों के स्वभाव के साथ सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास ही जीवन में प्रसन्नता का बोध करा सकता है। यहां हर व्यक्ति अपने स्वभाव के वश होकर अपना कर्म करता है। इसे हम ऐसा भी कहते हैं कि हर व्यक्ति को उसका स्वभाव अपने वश में कर किसी कार्य करने के लिये प्रेरित करता है।
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