हृदयमपि विघट्ठितं चित्संगी विरहं विशेषयति
हिंदी में भावार्थ-जिनके हृदय आपस में मिले हों वह विरह होने पर साथ रहने की अनुभूति करते हैं और जिनके मन न मिलते हों वह साथ भी रहें तो ऐसा लगता है कि बहुत दूर हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सारी दुनियां में प्रेम का संदेश फैलाया जाता है पर सच यह है कि प्रेम वह भाव है जो स्वाभाविक रूप से होता है। प्रेम में अगर कोई दैहिक,आर्थिक या सामाजिक स्वार्थ हो तो वह प्रेम नहीं रहता। ऐसे स्वार्थ के संबंध आदमी एक दूसरे से निभाते हैं पर उनमें आपस में हार्दिक प्रेम हो यह समझना गलत है। हमारा अध्यात्म दर्शन स्पष्ट रूप से कहता है कि प्रेम दो अक्षरों का सीमित अर्थ वाला शब्द नहीं है बल्कि उसका आधार व्यापक है। जो व्यक्ति एक दूसरे के प्रति निस्वार्थ भाव रखते हैं वही प्रेम करते हैं।
वैसे आजकल प्रेम का शब्द चाहे जहां सुनाई देता है पर उसका भाव कोई जानता हो यह नहीं लगता। आजकल तो प्रेम स्त्री पुरुष के दैहिक संबंधों तक ही सीमित माना जाता है। कभी प्रेम दिवस तो कभी मित्र दिवस के नाम पर युवक युवतियों की दैहिक भावनाओं को भड़काने के लिये तमाम तरह के प्रयास उनको बाजार के उत्पादों के प्रयोक्ता बनाने के लिये किये जाते हैं पर यह क्षणिक आकर्षण कभी प्रेम नहीं होता। अनेक ऐसे प्रसंग भी सामने आते हैं जब कथित प्रेम के आकर्षण में फंसकर युवक युवती विवाह कर लेते हैं पर बाद में घर गृहस्थी के बोझ तले दोनों एक दूसरे के लिये अपरिचित होते जाते हैं। जहां हृदय के प्रेम की बात होती थी वहां जब अन्य जरूरतों की पूर्ति के लिये संघर्ष की बात आती है तो सब कुछ हवा हो जाता है। ऐसे तनाव होता है कि एक छत के नीचे रहने वाले पति पत्नी एक दूसरे के लिये दूर हो जाते हैं।
नौकरी और व्यापार में अनेक लोगों से संपर्क प्रतिदिन बनता है पर सभी मित्र या प्रेमी नहीं बन जाते। कई बार तो ऐसा होता है कि अपने परिवार के सदस्यों से अधिक अपने निकट सहकर्मियों या निकटस्थ लोगों के साथ समय व्यतीत होता है पर फिर भी वह अपने नहीं बन पाते। उनसे मानसिक दूरी बनी रहती है। इसके विपरीत परिवार के सदस्य दूर हों तो भी हृदय के निकट होते हैं।
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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