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Thursday, October 2, 2008

मनुस्मृति: इच्छाएं तो अग्नि की तरह बढ़ती हैं

न जातु कामा कामानामुपभोगेन शाम्यति
हविपा कृष्णावत्र्मेव भूव एवाभिवर्धते

जिस प्रकार अग्नि में घी डालने से वह और अधिक जल उठती है उसी प्रकार आदमी सतत इच्छाओं की पूर्ति जैसे जैसा होती जाती है वैसे ही वह और अधिक बढ़ जातीं हैं।

यश्चैतान्प्राघ्नु यात्सर्वान्यश्चैतान्केवलांस्त्यजेत्
प्रापणात्सर्वकामानां परित्यागों विशिष्यते


एक व्यक्ति जो सब विषयों को प्राप्त कर ले और दूसरा जो सबका त्याग कर दे उनमें त्यागी को ही श्रेष्ठ कहा जा सकता है।

आज के संदर्भ में व्याख्या-मनुस्मृति के इन दोनों श्लोंकों का आशय यही है कि हमें अपनी इच्छाओं का दास बनने की बजाय उनका मालिक होना चहिए। जब हम अपने अंदर तमाम तरह की इच्छाएं पाल लेते हैं तो उनको पूरा करने के लिये इधर-उधर भटकने लगते हैं और तब हमारें सामने अनेक प्रकार के तनाव उपस्थित हो जाते हैं। हमारा काम कई चीजों के बिना भी चल सकता है पर हम उनको पाने की चेष्टा करते है। कई चीजें तो हमारे लिये क्षणिक काम या समय के लिये उपयोग में आतीं हैं और बाद में उनको कबाड़ में रख दिया जाता है पर हम उसे पाने में अपनी बेशकीमती समय और ऊर्जा नष्ट कर देते हैं। इसकी बजाय हम अपनी उन व्यर्थ की इच्छाओं और कामनाओं के स्वामी बनकर उन्हें रोंकें तो हम अपने जीवन में न केवल अपार आनन्द प्राप्त करेंगे बल्कि अपने आसपास ही दूसरे मनुष्यों के लिये आदर्श भी बन सकते है।
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नोट-उपरोक्त श्लोक कृतिदेव 10 में टंकित कर परिवर्तित टूल से युनिकोड में किये गये हैं अतः इसमें कुछ अलग के दिखाई दे रहे है। सुधि पाठक इसे अवगत हों।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप

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