ताते नव पल्लव भया, दिया दूर नहिं जात
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि बंसत ऋतु के याचना करने पर सभी हर भरे वृक्ष अपने पत्ते प्रसन्नता से त्याग देते हैं और फिर उनमें शीघ्र ही नये पत्ते आ जाते हैं। अतः यह सत्य है कि दिया गया कभी भी निष्फल नही जाता बल्कि और अधिक अच्छे रूप में प्राप्त होता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-मनुष्य का स्वभाव है संग्रह करना। उसके अंदर एक भय रहता है जो उसे भविष्य के लिये चिंतित किये रहता है। देने वाला दाता सभी को देता है पर मनुष्य बाहर से उस पर यकीन करता दिखता जरूर है पर अंदर ही अंदर उसे बुरे समय का की चिंता खाये रहती है। इसलिये माया का संग्रह इस आशंका में किये जाता है कि कब संकट आये और वह उसकी रक्षा करेगी। कुछ लोग तो दान आदि की प्रवृत्ति से दूर इसलिये रहते हैं कि उनका धन कम न हो जाये पर बाहर से तर्क देते हैं कि किसी को बिना मेहनत किये देने से उसका अकर्मण्य बनाना है जो कि एक तरह का पाप है। भिखारियों को देने का विरोध अनेक लोग यह कहते हुए करते हैं कि इससे उनको परिश्रम करने की प्रवृत्ति से दूर करना एक तरह का पाप है। यह तर्क बेकार है। अगर हमारे पास कुछ देने के लिये है तो उसे त्याग देना चाहिये। लेने वाला कौन है और उसका क्या करेगा? यह विचार नहीं करना चाहिए। ऐसा विचार हमारे अंदर मौजूद अहंकार की प्रवृत्ति का परिचायक है।
उसी तरह कुछ लोग किसी विशेष विषय में ज्ञान प्राप्त कर उसे छिपाते हैं। इस आशंका से वह किसी को बताते नहीं है कि उनको फिर अपने व्यवसाय या अभियान मेें बराबर की चुनौती मिलने लगेगी। यह भी एक भ्रम है। अगर हम किसी को ज्ञान देते हैं तो उसका कोई उपयोग करता और उसके काम करने के तरीके से भी हमें ज्ञान मिलता है। यहां कोई भी व्यक्ति संपूर्ण नहीं हो सकता है इसलिये अगर हमें किसी विषय में ज्ञान बढ़ाना है तो उसके बारे में दूसरों को भी बताते रहना चाहिये। इस तरह चर्चा से हमें दूसरे से भी ज्ञान प्राप्त होता है।
जो लोग इस तरह सीमित दायरों में रहकर कार्य करते हैं उनका समाज में सम्मान नहीं मिलता। यह संसार बहुत व्यापक है और कोई किसी का भाग्य का नियंता नहीं है और हमें यह बात अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि हमारे धन या ज्ञान देने से न तो कोई बढ़ता है और न हम कम होते हैं। यह जीवन चक्र तो स्वाभाविक रूप चलता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
1 comment:
"उसी तरह कुछ लोग किसी विशेष विषय में ज्ञान प्राप्त कर उसे छिपाते हैं। इस आशंका से वह किसी को बताते नहीं है कि उनको फिर अपने व्यवसाय या अभियान मेें बराबर की चुनौती मिलने लगेगी।"
प्रिय दीपक, यह बात मैं अपने कई मित्रों को कई सालों से बताता आया हुं. इसका उत्तर जो आपने आगे की पंक्तियों में लिखा है वह तो दिल को छू गया.
सस्नेह:
-- शास्त्री जे सी फिलिप
-- समय पर प्रोत्साहन मिले तो मिट्टी का घरोंदा भी आसमान छू सकता है. कृपया रोज कम से कम 10 हिन्दी चिट्ठों पर टिप्पणी कर उनको प्रोत्साहित करें!! (सारथी: http://www.Sarathi.info)
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