राजा परजा जो रुचै, शीश देव ले जाये
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम की फसल किसी खेत में नहीं होती और न ही वह किसी हाट या बाजार में बिकता है। प्रेम तो वह भाव है कि अगर किसी व्यक्ति के प्रति मन में आ जाये तो भले ही वह सिर काटकर ले जाये। यह भाव राजा और प्रजा दोनों में समान रूप से विद्यमान होता है।
यह तत वह तत एक है, एक प्रान दुइ गात
अपने जिय से जानिये, मेरे जिय की बात
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब प्रेम का भाव हृदय में उत्पन्न होता है तो दोनों प्रेमी आपस में इस तरह मिले हुए लगते हैं जैसे कि वह एक तत्व हों। वह दोनों अपने मुख से कहे बगैर एक दूसरे के हृदय की बात जान लेते हैंं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल तो हर जगह प्रेम प्रेम शब्द का उच्चारण होता है। खासतौर से आजकल के बाजार युग में प्रेम को केवल युवक युवतियों के आपसी संपर्क तक ही सीमित हो गया है। इसमें केवल तत्कालिक शारीरिक आकर्षण में बंधना ही प्रेम का पर्याय बन गया है। सच बात तो यह है कि प्रेम तो किसी से भी किया जा सकता है। भारतीय अध्यात्म में प्रेम का तो व्यापक अर्थ है और उसमें केवल निरंकार परमात्मा के प्रति ही किया गया प्रेम सच्चा माना जाता है। संसार में विचरण कर रहे जीवन से प्रेम करना तो एक तरह से अपनी आवश्यकताओं से उपजा भाव है। हां, अगर उनसे भी अगर निष्काम प्रेम किया जाये तो उससे सच्चे प्रेम का पर्याय माना जाता है।
सच्चा प्रेम तो वही है जिसमेंे कोई प्रेमी दूसरे से किसी प्रकार की आकांक्षा न करे जहां आकांक्षा हो वहां तो वह प्रेम सच्चा नहीं रह जाता। प्रेम का भाव तो स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है और वह बाह्य रूप नहीं बल्कि किसी व्यक्ति के आंतरिक गुणों से ही जाग्रत होता है। अतः जो निच्छल मन, उच्च विचार, और त्यागी भाव के होते हैं उनके प्रति सभी लोगों में मन में प्रेम का भाव उत्पन्न होता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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2 comments:
"ah great to read, feeling peace as always"
Regards
आपके आत्मिक स्नेह और सतत हौसला अफजाई से लिए बहुत आभार.
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