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Friday, July 18, 2008

अगर अर्जुन नहीं बन सकते तो एकलव्य बन जायें-आलेख

गुरु की महिमा का वर्णन करना कठिन है पर जीवन की सार्थकता और अध्यात्मिक शांति के लिये किसी से ज्ञान लेना बहुत आवश्यक है। अक्सर आपस में ही लोग एक दूसरे स यह पूछते हैं कि ‘योग्य गुरू की पहचान क्या है और उसे कैसे ढूंढा कैसे जाये? इसका उत्तर यही है कि जो सांसरिक विषयों की चर्चा किये बिना अध्यात्म का ज्ञान प्रदान करे वही सच्चा गुरु है। अध्यात्म ज्ञान वह है जिससे आदमी अपने को पहले पहचानने के बाद परमात्मा और उसके बनाये इस संसार को समझ सकता है। अगर कोई गुरु सांसरिक विषयों पर बोलता है तो समझ लीजिये वह स्वयं ज्ञानी नहीं है भले ही वह तत्व ज्ञान बताता हो पर उसे धारण किये हुए नहीं होता।

वैसे जो भी अध्यात्मिक ज्ञान है वह हमारे प्राचीन ग्रंथों में लिखा हुआ है और उसे पढ़कर कोई भी साधक सिद्ध बन सकता है। सिद्ध से आशय यह नहीं है कि वह कोई चमत्कार करने लगेगा बल्कि जो अपना जीवन परमार्थ, परोपकार तथा भगवान भक्ति के साथ शांतिपूर्ण ढंग से व्यतीत करता है वही सिद्ध है। उसी अध्यात्म ज्ञान को पढ़कर और पढ़ाकर उसकी विवेचना करने वाला व्यक्ति ही गुरु बन सकता है। अगर कोई ऐसा गुरु नहीं मिलता तो फिर इसका एक उपाय यह है कि अपने प्राचीन ग्रंथ पढ़ने के लिये स्वयं ही तैयार हो जायें और पढ़ते हुए उसकी मन ही मन विवेचना करें। गुरु की उपस्थिति अगर आवश्यक हो तो कोई एक तस्वीर अपने सामने रख लें। नहीं तो एक पत्थर ही रख लें और उसे अपने मन में गुरु का स्थान दें।

वैसे तो योग्य गुरु मिलना हर युग में कठिन रहा है क्योंकि अगर ऐसा होता तो अनेक सच्चे संत इस बात को दोहराते नहीं कि योग्य गुरु की शरण लो। संत कबीर समेत सभी भक्ति कालीन कवियों ने योग्य गुरु की शरण लेने का संदेश दिया है। बिना गुरु के जीवन को समझना कठिन हैं ऐसे में अगर हम अर्जुन नहीं बन सकते तो एकलव्य ही बन जायें। एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर ही धनुर्विद्या का का ज्ञान प्राप्त किया था। अतः अपने किसी पूज्यनीय या किसी प्राचीन गुरु की तस्वीर या किसी चित्रकार द्वारा रेखाचित्रों के द्वारा बनाया गया या पत्थर पर गढ़ा गया चित्र ही सामने रख लें। अगर अपने अंदर अध्यात्मिक शांति और सहजता अनुभव करें तो उस कल्पित गुरु की दक्षिणा के नाम किसी सुपात्र को अपनी श्रद्धा और सामथर््यानुसार आर्थिक राशि या वस्तु का दान करें। हमारे प्राचीन ग्रंंथों में अघ्यात्म का संपूर्ण सार श्रीगीता में हैं बस उसे पढ़ने और समझने की है। उसे पढ़ें और ऐसे लोगों की संगत करें तो अध्यात्मिक विषयों में रुचि लेते हों। उनकी बात सुने, कहीं लिखा हुआ मिले तो पढ़ें और अपने कल्पित गुरू को सामने रखकर उसका अध्ययन करें।

वैसे कोई गुरु मिल जाये तो अच्छी बात, पर नहीं मिलता तो यही भी एक तरीका है। एकलव्य भी एक अध्यात्मिक पुरुष थे और अर्जुन भी। दोनों ही योग्य शिष्यों के रूप में समान रूप से प्रसिद्ध हैं। अगर कोई योग्य गुरु नहीं मिलता तो हम श्री अजुर््न का अनुकरण नहीं कर सकते और ऐसे में एकलव्य का मार्ग की अपनाया जा सकता है।

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छा मार्गनिर्देशन किया है।अच्छा लेख है।

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