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Sunday, May 25, 2008

भृतहरि शतक:कामदेव की है विचित्र लीला

कृशः काणः खञ्ज श्रवणरहितः पुच्छविकलो
व्रणी पूयक्लिनः कृमिकुलशतैरावुततनु
क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरककापालार्पिततगलः
शनीमन्वेति श्वा हतमपि निहन्त्येव मदनः

हिंदी में भावार्थ-देह से दुर्बल, खुजली वाला, बहरा काना, पुंछ विहीन, फोड़ों से भरा, पीव और कीट कृमियों से लिपटा, भूख से व्याकुल, बूढ़ा मिट्टी के घड़े में फंसी हुई गर्दन वाला कुत्ता भी नई तथा युवा कुतिया के पीछे पीछे दुम हिलाता हुआ फिरता है। यह कामदेव की लीला है कि वह मरे हुए में भी काम भावना लाकर उसे गहरी खाई में ढकेल कर मार देते हैं।

1 comment:

Anonymous said...

काम प्राणी के अवचेतन में जीवन का प्रतीक है, जिसे भी मृत्यु से जितना डर लगता है वह उतना ही ज़्यादा कामुक हो जाता है.
इसीलिए 'सेक्स-हिंसा' शब्द युग्म का प्रयोग आधुनिक युग के अपराध साहित्य में भी होता है. अति हिंसक लोग अति-कामुक भी होते हैं.

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