भला भयो घर से छुट्यो, हंस्यो सीस परिखेत
काके काके नवत हम, अपन पेट के हेत
कविवर रहीम कहते हैं कि घर से छूटकर दूसरी जगह पर कमाना बहुत अच्छा लगता है पर इसके लिये वहां पर दूसरों के आगे सिर नवाना पड़ता है और हमारे ऊपर बैठा सबका रक्षक परमात्मा हंसता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अनेक लोग धन कमाने के लिये अपने गांव और प्रदेश से बाहर जाकर अपनी प्रतिभा से अच्छी आय भी अच्छी अर्जित करते हैं पर उनको कई कारणवश दूसरों के सामने झुकना पड़ता है तब उनकी आत्मा को भारी कष्ट होता है। हमारे देश से कई लोग विदेशों में जाकर बसे हैं इसमें कुछ देश ऐसे है जिनके राज्य धार्मिक आधार पर चलते हैं और वहां दूसरे धर्म के लोगों के लिये किसी भी प्रकार की आराधना करने की अनुमति नहीं है। ऐसे देशों के रहने वाले भारतीयों को उस देश की आराधना के वक्त अपने काम बंद रखने पड़ते हैं। इसके अलावा चूंकि उन देशों के पुराने धार्मिक कानून चलते हैं अतः उन्हें सतर्क रहना पड़ता है कि कहीं से उनके धर्म पर कोई ऐसी टिप्पणी न हो जाये जिसका परिणाम उन्हें भोगना पड़े।
हमारे देश के विद्वान मनीषी उदार रहे हैं और यह हम समझते हैं कि सभी जगह ऐसा है तो यह भ्रम है। धार्मिक राष्ट्रों में तो विद्वान लोग ही हिंसक कानूनों को लागू करने में सहायता करते हैं और इतना ही नहीं वह अपने यहां किसी अन्य धर्म के पालन की अनुमति देने के भी विरुद्ध हैं। हां, वह दूसरे स्थानों से दूसरे धर्म के लोगों के आने के खिलाफ नहीं हैं क्योंकि वह तो उनकी प्रतिभा का लाभ उठाकर अपने देश के हित साध रहे हैं। भारत में बेरोजगारी अधिक है इसलिये अनेक लोग ऐसे राष्ट्रों में जाते हैं और खूब कमाते हैं पर अपने इष्ट का स्मरण न कर जो पीड़ा झेलते हैं वह उसे कह भी नहीं पाते। कुछ लोगों ने अपनी बातें घुमाफिराकर लिखीं पर स्पष्ट किसी ने नहीं लिखा और न वह मांग कर पाते हैं कि वह भी उन देशों की सेवा करते हैं और उनको अपने धर्म पालन की अनुमति दी जाये। ऐसे कई देशों में भारतीयों के मानसिक तनाव की चर्चा तो आती है पर उस पर कोई रोशनी नहीं डालता कि वह किस कारण से है?
उनके मानसिक तनाव का कारण भी यही है कि हमारे देश का आदमी अपने इष्टों की प्रतिमाओं के आगे शीश नवाकर अपने मन का बोझ हल्का करता है और वहां इसकी अनुमति न होने से उनकी आत्मा त्रस्त होती है। उनको ऐसे कानून मानने पड़ते हैं जो उनके अनुकूल नही है। ऐसे में रहीम को दोहे में उन लोगों के की मानसिक पीड़ा की अभिव्यक्ति प्रकट होती है वह विचारणीय है।
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लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर
Thursday, April 17, 2008
रहीम के दोहे:पराए देश में कमाना, आत्मसम्मान गंवाना
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3 comments:
''हमारे ऊपर बैठा सबका रक्षक परमात्मा हंसता है।'aap ki is baat se main bilkul sahmat nahin hun--mera yah manna hai ki jo hota hai wah ishwar ki marzi se hota hai--
-rahi baat isht dev ki to kya sirf mandir mein jaane se hi aap dhramatma hue?
-yahan paanch samay ki azan gunjati hai aas paas har roz lekin apne teez tyohar-pooja archna ham aaj tak nahin bhuule.
-manseek pareshaniyan /frustration kya hindustan mein rahne wale logon ko nahin hotin??
Jo jobs ya dusre karano se log apno se duur nahin rahtey hain kya?
अल्पना जी
मैंने तो किसी देश का नाम नहीं लिया. हाँ मैंने कुछ ऐसे समाचार पढें हैं तभी एक सामान्य बात लिखी. मेरी दिलचस्पी किसी खास देश में नहीं है.आपने लिखा की हम अपने तीज त्यौहार भूले नहीं है पर आपने यह नहीं बताया कि उनको मना पातीं हैं कि नहीं. अगर आप उनको मना पातीं हैं तो अच्छी बात है. देश में फ्रस्टेशन या तनाव झेलने की बात मानी पर बाहर भी झेलना पड़े तो फिर क्या फायदा? मेरे लिखा से दुनिया नहीं बदल जायेगी पर मैंने ई पत्रिकाओं में ही कुछ ऐसीं कहानियां पडीं हैं जो विदेशों में गए लोगों के ऐसे तनावों का जिक्र करतीं हैं जो यहाँ नहीं होते.आप वहाँ खुश हैं यह देखकर अच्छा लगा और मेरी इस ब्लोग में लिखी गयी कोई बात आप पर लागू नहीं होती.
दीपक भारतदीप
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