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Wednesday, April 16, 2008

संत कबीर वाणी:जो शिक्षा भ्रम में रखे वह किस काम की

पढ़ै गुनै सीखै सुनै, मिटी न संसे सूल
कहैं कबीर कासों कहूं, ये ही दुख का मूल

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि बहुत पढ़ा सीखा और गुना पर मन में जो संशय के कांटे हैं वह न नहीं निकल सके। यह बात किसको बतायें कि यह पढ़ना लिखना ही दुःख का मूल कारण है।

पण्डित पोथी बांधि के, दे सिरहाने सोय
वह अक्षर इनमे नहंी, हंसि दे भावे रोय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपनी पोथी बांध कर अपने सिरहाने रख दो क्योंकि इनमें वह अक्षर ज्ञान नहीं है जो रोते हुए को अच्छा लगे और वह हंसने लगे।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-ऐसा लगता है कि कबीर दास जी के समय ही लोग अध्यात्मिक शिक्षा से दूर होने लगे थे और धर्म में नाम पर भी केवल सांसरिक कार्यों तथा कर्मकांडों की शिक्षा दी जा रही थी इसलिये कबीरदास जी ने ऐसा शिक्षा की आलोचना की। आज तो पूरी तरह से अंग्रेजों द्वारा निर्मित शिक्षा पद्धति को-जो उन्होंने भारत की पुरातत्व ज्ञान को यहां के लोगों के दिमाग से निकाल फैंकने तथा उन्हें हमेशा गुलाम बनाये रखने के लिये बनायी-अपनाये हुए हैं। दुनियां में बहुत लोग अंग्रेजी बोलते हैं पर सभी सभ्य और धनी नहीं है। अंग्रेजी से सबको रोटी भी नहीं देती। फिर यहां हर आदमी अपने बच्चे को अंग्रेजी सिखाना क्यों चाहता है? कहीं उसे अच्छी नौकरी मिल जायेगी। बड़े-बड़े धनाढ्य सेठ अंगूठा टेक हैं फिर समाज में उनकी इज्जत है क्योंकि वह किसी की नौकरी यानि गुलामी नहीं करते। नौकरी कितनी भी अच्छी क्यों न हो गुलामी होती है इस सत्य को कोई बदल नहीं सकता फिर भी करोड़ों की संख्या में लोग इसीलिये पढ़ रहे हैं कि उनको कही नौकरी मिल जाये।

अब आदमी पढ़ा लिखा भी है तो क्या केवल गुलामी करने वास्त ही न! तब ऐसी किताबों को पढ़ने से क्या फायदा जो गुलामी करने के लिये मजबूर करतीं है। इसलिये अच्छा है कि अध्यात्मिक शिक्षा भी प्राप्त की जाये। चूंकि आजकल की शिक्ष से एकदम परे होने का मतलब है अक्षर ज्ञान से वंचित होना इसलिये जितनी आवश्यक हो उतनी प्राप्त कर अपना स्वतंत्र काम करते हुए भगवान भजन करना चााहिए।

2 comments:

mehek said...

bahut hi achhe vichar hai,sahi inse bahut kuch sikhane milta hai.

mamta said...

सही कहा है।

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