दोष पराया देखि करी, चले हसन्त हसन्त
अपना याद न आवई, जाकर आदि न अंत
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं की दूसरों की निंदा करने वाले दूसरों के दोष देख कर हँसते-हँसते चलते हैं परन्तु अपने दोष देखने का प्रयास नहीं करते। ऐसे लोगों की संख्या बहुत है और उनका न आदि है और अंत।
भावार्थ- दूसरे के निंदा करना एक मानवीय स्वभाव है, और यह काम एकदम आसान भी है। कुछ लोग तो बस इसी काम में जुटे रहते हैं। उनके पास कोई काम नहीं होता सिवाय दूसरे के छिद्र ढूँढने के।वैसे तो सभी लोग एक-दूसरे की निंदा करते हैं पर कुछ लोग तो इसका अधिक रस लेते हैं। वह दूसरे के दुर्गुणों का बखान इस तरह करते हैं जैसे वह उनमें नहीं है। वह इस कदर परनिंदा में रहते हैं की लोग उनसे घृणा करते हैं पर सामने कुछ नहीं कहते कि वह व्यक्ति दूसरे स्थान पर जाकर फिर उनकी निंदा करेगा। निंदक लोग दूसरे की निंदा करते हुए हँसते जाते हैं। सामने वाला आदमी इन्तजार करता है कि कब वह जाएं पर जाते नहीं। वह दूसरे की निंदा करते हुए हँसते जाते है और उनके जाने के बाद ही सामने वाला चैन की सांस ले पाता है। अगर हमें लगे यह परनिंदा का गुण हमारे अन्दर भी है और उसे लोग नाराज हैं तो उसे दूर हटने का प्रयास करना चाहिए।
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