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लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर
Tuesday, June 19, 2007
बुध्दिजीवी और भाषा
चन्द किताबें पढ़कर
पहुंच जाते हैं ज्ञानियों की महफ़िल में
करते हैं अपने ज्ञान का प्रदर्शन
बहुत लंबी होती है बहस
बुध्दी के तरकश में जितने
सरल और कठिन शब्द होते हैं
तीर की तरह चलाते हैं
जब निष्कर्ष निकालने का
समय होता है
तब तय करते हैं कि
अभी और बहस करेंगे
जारी रखेंगें चिन्तन
बुध्दी अपनी हो या पराई
करते हैं बुध्दिजीवी जैसा प्रदर्शन
अपने खोखले अर्थों वाले
निरर्थक शब्दों को किसी तरह सजाते हैं
सब लोगों को भ्रम जाल में फंसाते हैं
कभी नहीं करते आत्ममंथन
कुछ किताबों से चुन लिए वाक्य
लोगों से सुनकर गढ़ लिए
कुछ अपने और कुछ उधार के कथन
उस पर ही बरसों तक
चलता है उनका प्रहसन
शायद इसीलिये कहीं कुछ नया
बनता नज़र नहीं आता
ज़माना उनके जाल
से नहीं निकल पाता है
क्योंकि कोई नहीं कर रहा मनन
फिर भी उम्मीद है
कहीं नयी धारा बहेगी
फूलों के तरह नये शब्द खिलेंगे
कुछ नये कथन बनेंगे
खिलेगा अपनी भाषा का चमन
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4 comments:
कमाल है, क्या कविता बनाई है
वाह जी, बधाई है, बधाई है
बुद्धिजीवियों को आईना दिखा दिया
सब सच सच समझा दिया
आप बुद्धिमान नहीं अतिबुद्धिमान हैं
महान नहीं आप महानतम विद्वान हैं
बुद्धि कुछ ज़रूरत से ज्यादा है
इसलिए बुद्धि लिखना नहीं आता है
बुद्धी लिखते हो, बुद्धि सिखाते हो
चड्ढी में पॉटी है, बुद्धि अभी खोटी है
तुकबंदी छोड़ो बात-विचारों के मैदान में आओ
अपने आप ठीक से धोना सीखो, लोटा उठाओ
झोलाछाप स्वघोषित बुद्धिजीवियों की भण्डाफोड़ करती अच्छी कविता। कुछ लोगों को ये बात चुभेगी क्योंकि एक पार्टी ने देश के कारखाने बन्द कराकर बुद्धिजीवी का सर्टिफिकेट छापने का कारखाना खोल दिया ऐ।
कठीन शब्द ही नहीं 'बोलियों' के शब्द भी फैशन में है. पढ़ने वाला क्या समझे? यही सोचेगा जरूर कोई ऊँची बात की है :)
सही लिखा है. बहुत खुब.
बढ़िया!!
अनुनाद जी के कथन से सहमत हूं!!
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