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Sunday, May 13, 2007

माँ को आत्मा से एक दिन भी परे करना कठिन

NARAD:Hindi Blog Aggregatorपूरी दुनियां में आज मदर डै मनाया जा रहा है, और भारत में भी इसे कुछ लोग मना रहे हैं । अगर इसे शुद्ध हिन्दी में कहें तो आज माँ दिवस मनाया जा रहा है। वैसे कोई कुछ भी करे हम कोई बात कहने वाले कौन होते है ? पूरे विश्व में मनाने की बात भी हम गलत कह रहे हैं यह केवल पाश्चात्य सभ्यता की ही दे न है और इसे केवल पश्चिमी देशों में ही मनाया जाता है। मध्य और पूर्वी विश्व के देश अपनी अलग संस्कृति और सभ्यता के साथ जीते हैं और उनके सामाजिक संस्कार इतने मज्बूत हैं कि उन्हें अपने प्रियजनों के लिए किसी एकदिन या सप्ताह की आवश्यकता नहीं पडती।अपने माता-पिता सभी को प्रिय होते हैं क्योंकि वह न केवल आदमी को इस संसार में लाते हैं बल्कि प्रथम ज्ञान वही देते हैं।

हमारे देश में माता तो भगवान् का दर्जा रखती है और हो भी क्यों नहीं उसका परिचय भी तो वही देती है ।

गुरू गोविन्द दोहू खडे , का के लागू पाय
बलिहारी गुरू कि, जो गोविन्द दिया दिखाय


उस गुरू को बस एक दिन! पल-पल मेरे दिल में बसने वाली माँ के लिए बस एक दिन ! मुझे लगता है कि पशिच्मी देशों की संस्कृति में जिस क़दर भौतिकता वाद का बोलबाला है उसको देखते हुए ऐसे दिनों की जरूरत पड़ती होगी। मैं नही जानता कि गलत हूँ या सही, पर मैंने अपने माता-पिता को अपने आत्मा से परे कभी नहीं माना, और मैंने अपने माता-पिता की उनके मुहँ पर कभी प्रशंसा नहीं की क्योंकि उनके संस्कारों ने ही मुझमें यह संकोच भरा है।। मैंने उनसे क्या सीखा कभी यह उन्हें बताया नहीं। मेरे पिता अब इस दुनिया में नहीं है पर हर हालत से जूझना, अपने कार्य को निष्ठा और लगन से करना और सदैव दूसरों की सहायता करना मैंने अपने पिता से ही सीखा है । माँ से सीखा है अपने धर्म में अगाध आस्था रखना और भगवान की भक्ती और सदैव सहज रहने का भाव। हालतों ने हमें अलग अलग शहरों में पहुंचा दिया पर इसी दौरान मेरे को यह पता लगा कि मैं अपने माता-पिता से सीखा क्या था-क्योंकि अकेले में उनका ज्ञान ही मेरा सारथी बना ।संघर्ष के पलों में मैं आज भी अपने पिता का स्मरण करता हूँ तो लगता है कि दिल में एक स्फूर्ति आ रही है -सोचता हूँ कि उन्होने भी तो संघर्ष किया और मैं भी तो उनका ही बेटा हूँ। ऐसा सोचते ही मुझे अपने संकट और परेशानी हल्की लगने लगतीं है। मैंने उनके सामने कभी उनकी प्रशसा नहीं की तो उन्होने कभी मुझे किसी उपलब्धि पर शाबाशी नहीं दीं। प्रशंसा और शाबाशी की अभिव्यक्ति के लिए आंखों के भाव ही पर्याप्त रहते हैं। मुझे याद ही मेरे इंटर परीक्षा का परिणाम आया था और मैंने माता-पिता को यह खबर दीं थी - दोनों ने एक स्वर में कहा था कि मुझे अभी आगे भी अच्छी रह पढाई करनी है और अपने लिए अच्छे रोजगार की भी तलाश करनी है । बाद में मुझे पता लगा कि मेरे पास होने की खबर मेरे पिताजी ने अपने रिश्तेदारों और मित्रों को फोन कर सुनाई थी तो माताजी ने अपने सहेलियों को। वह दोनों मेरी आत्म में बसे हैं और किसी एक दिन के लिए उन्हें याद करने की बात में मुझे हल्कापन तो लगता है और ऐसा लगता है कि उनके नाम पर एक दिन मनाने का मतलब है उन्हें अपने आत्मा से परे करना-ऐसा सोचना भी मेरे लिए मुश्किल है । मैं उनकी तस्वीर कहीं रखकर नही देख सकता क्योंकि मैं उसे अपनी आत्मा से बाहर निकालने की ताकत नहीं रखता। मुझे पता नहीं मै क्या लिख रहा हूँ पर मेरे द्वारा लिखा गया हर शब्द मुझे उनकी याद दिला रहा है मैं कैसे कहूं कि इस शब्द पर मुझे उनकी याद आयी और इस पर नहीं। भले ही पश्चिम से आया हो पर माँ दिवस पर मैं यही लिख सकता था । किसी में दोष देखना या आत्म प्रवंचना करना मेरे माता-पिता ने नहीं सिखाया। मेरे पिता कहते थे कि दूसरों में दोष देखोगे तो वह उससे निकल कर तुममें आ जायेंगे और माँ कहती है कि अपने मुँह से अपनी तारीफ मत करो , अगर अच्छा करोगे तो दुनियां तुम्हारी तारीफ करेगी । अपने माता पिता की तस्वीर मेरे जो दिल में है वह किसी अन्य को मैं दिखाने में असमर्थ हूँ क्योंकि जज्बातों को अल्फाजों में लिखा जा सकता है पर तस्वीर के लिए वह भी अपने जो दिल में है किसी को भला कैसे दिखाई जा सकती है? फिर भी मदर डै मनाने वालों को मैं बधाई देना चाहूँगा क्योंकि मेरी माँ ने मुझे सिखाया है कि दूसरों के दिल की बात भी रखा करो ।

3 comments:

सुनीता शानू said...

सत्य वचन।

परमजीत सिहँ बाली said...

आप की बातो से मै सहमत हूँ।
"मैंने अपने माता-पिता को अपने आत्मा से परे कभी नहीं माना"

रंजू भाटिया said...

bilkul sahi baat likhi hai aapne ..

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