मैं नारों से उतेजित नहीं होता और किसी वाद से प्रभावित नहीं होता, इतिहास कभी पढा था पर अब उस पर यकीन नहीं करता मैं अपनी बात बता त सकता हूँ कि उस समय क्या हुआ था जो इतिहास में दर्ज तथ्यों से मेल नहीं खायेगी, इतिहास लिखा नहीं लिखवाया जाता उन लोगों द्वारा जो अपना नाम अपने हिसाब से मरने के बाद भी अपना नाम जिन्दा चाहते हैं और उसे जो दोहराते हैं वह भ्रम पैदा कर आदमी की सोच को अपने पास गिरवी रखना चाहते हैं । मैं कोई ज्ञानी नहीं हूँ पर ज्ञान के अर्थ समझता हूँ। आख़िर मैं कैसे अपनी सोच कायम करता हूँ। सरल सी बात है, एक घटना यहं कई बार दोहराती है और उस घटना को देखकर इतिहास वाली घटना पर पेस्ट कर दीजिए, और मान लीजिये कि उस समय भी वही हुआ था-आप पाएँगे जिसने इतिहास लिखा था उसने कई घटनाओं को तोड़ा-मरोडा है। आज नारद ने सोमवार से पहले ही ब्लोग को अपने यहां खींच लिया तो मुझे अपने धर्म ग्रंथों में वर्णित नारदजी की याद आयी चाहे जब जहाँ पहुच जाते थे। अपने अध्यात्म में मेरी गहरी रूचि है पर इससे मुझे पोंगा मत समझ लेना । अपने विचार व्यक्त करने का मेरा एक अपना ही तरीका है , मैं दूसरों से प्रश्न नहीं करता उनके उत्तर खुद ही ढूँढता हूँ । जैसे मैं किसी अजनबी से बात करता हूँ तो उसका परिचय नहीं पूछता और देता हूँ -मुझे मालुम है कि जब वार्तालाप का दौर चल रहा है तो दोनों एक-दुसरे को जान लेंगे-न भी जाने तो क्या? जरूरी नहीं है कि सबको जाना जाये या अपको सब जाने ?बात चल रही थी वाद और नारों की हो रही थी। कुछ नारे इस देश में लोकप्रिय हुए जैसे -अंग्रेजों देश छोडो का नारा लगा तो पूरे देश्में एक लहर चल पडी और देश आज़ाद हो गया। आजादी के बाड़े एक नारा गूंजा "सारे जहाँ से हिदोस्तान हमारा" जो एक ऐसे शायर के गीत से लिया गया जो बाद में पाकिस्तान चला गया । उसका गीत आज भी स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस सुनने को मिल जाता है। अब बताईये क्या यह नारा मुझे प्रभावित कर सकता है? और फिर क्या देश के जो हालत सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, और वैचारिक दृष्टि से हैं उसे देखकर हम यह दावा कर सकते हैं । धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, और गरीबी हटाओ के नारे इस देश में बहुत लोकप्रिय हुए पर क्या हुआ उनका? इनसे भ्रमित हुए और उन लोगों को अपने सिर पर बैठाते रहे किसी वाद को ओढ़ने और नारे लगाने के आलावा और कुछ नहीं जानते थे । झूठ और भ्रष्टाचार पर आधारित चरित्र लोकप्रिय हुए और सत्य और ईमानदारी को मूर्खता का पर्याय माना जाता है। धनी, उच्च पदस्थ और प्रतिष्ठित व्यक्ति के इर्द गिर्द मंडराने का लोभ कितने लोग छोड़ पाते हैं और कभी ऐसे लोगों की असलियत जानने की कोशिश करते हैं और जान पाते हैं तो क्या उनके सामने कहने का हम में साहस होता है। इस पर भी मैं जवाब नहीं मांगूंगा क्योंकि जैसा मैं हूँ वैसे तुम भी हो और पहले भी ऐसे लोग थे। देश का बंटवारा हुआ, उस पर वही लिखा गया जो उस समय के लोग चाहते थे, उनमें भी कुछ लोग थे जिन्होंने भावावेश मैं लिखा तो कुछ ने अपने आदर्श व्यक्तित्वों के लिए लिखते हुए अति की है जैसे आज के लोग कर रहेहैं । क्या कभी किसी ने ऎसी कल्पना की कि इस देश का बंटवारा नहीं होता तो कैसा होता इस देश का परिद्रश्य ?अच्छा या बुरा ? इस बारे में आम लोग सोचें नहीं इसीलिये तमाम तरह के "वाद" और नारे रचे गये ताकी उनकी सोच में उन्हीं लोगों का व्यक्तित्व रहे जो आजादी के समय था। उद्देश्य यही था कि अब स्वदेशी नेतृत्व अब अपने संघर्ष के बदले सत्ता का सुख भोगता रहे और इसके लिए अंग्रेजों द्वारा रची गयी लार्ड मैकाले की शिक्षा पध्दती को ही बनाए रखा गया जो गुलाम पैदा करती है योध्दा नहीं । भारत की जो पुराणी गुरुकुल प्रणाली है उसे धर्मनिरपेक्षता के सिध्दांत के तहत दूर रखा गया।
आज प्रथम स्वतंत्रा संग्राम की १५०वी वर्षगांठ है यह बात मुझे यह बात लिखते लिखते याद आयी , उस संग्राम के शहीदों को मेरी श्रध्दांजलि । मैं जब आजादी के उन दीवानों के बारे में सोचता हूँ , तो एक विचार मेरे दिमाग में आता है कि क्या आजाद भारत के इस स्वरूप के उन्होने कल्पना की होगी ? जवाब भी मैं खुद ही देता हूँ नहीं । केवल किसी "वाद" या नारे पर देश नहीं चला करते यह एक सर्व मान्य तथ्य है पर यह देश चला और जो हालत है हमारे सामने हैं । सवाल अपने से करना और जवाब भी खुद देना तभी सोचने में गहराई आयेगी जो इस देश का एक बहुत बड़ा वर्ग नहीं चाहता। शेष फिर कभी

3 comments:
शब्दलेख सारथी जी, आपका पूरा लेख दो बार पढ़ा, एक दो बार और पढ़ कर कोशिश करता हूँ। ऐसा लगता है मानो भावातिरेक में आपका मन स्वयं चिट्ठे पर उतर आया हो।
हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है। नियमित लेखन हेतु मेरी तरफ से शुभकामनाएं।
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ई-पंडित
चिट्ठाजगत में, नारद पर आपका स्वागत है । अच्छा लिखा है । लिखते रहिये । जैसा कि श्रीश जी ने कहा, यहाँ सब लोग आपकी मदद के लिए तैयार रहेंगे ।
घुघूती बासूती
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