पहले तो मनुष्य की
पीढ़ियां दर पीढ़ियां ही शहर या गांव में जीवन गुजार देती थीं। आधुनिक युग में संचार, संपर्क तथा परिवहन के आधुनिक
साधनों ने उसे मानसिक रूप से अस्थिर बना दिया
है। इसी कारण जहां पहले केवल श्रमिक वर्ग के ही लोग रोजगार के लिये परिगमन करते थे
वहीं अब खाये पीये लोगों में भी बाहर जाकर आनंदमय जीवन बिताने का विचार जोर पकड़ता है-जिस
स्थान पर सब कुछ मिल रहा है वह उन्हें ढेर सारे दोषों के साथ ही बोरियत देने वाला लगता
है-पर्दे की प्रचार पंक्तियां उन्हें दूर के ढोल सुहावने दिखाती हैं।
चाणक्य नीति में कहा गया
है कि
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अलिस्यं नलिनीदलमध्यगः कमलिनीमकरन्दमदालसः।
विधिवशात्परंदेशमुपागतः
कुटाजपुष्परसं बहु मन्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-भौंरा जब तक कमलिनी के मध्यम
रहते हुए पराग से रसपान कर उसके मद में आलसी हो जाता है पर कालवश परदेेश जाने के शौक
से अन्य फूलों पर चला जाता है जिनमें न रस
होती न गंध।
अध्यात्मिक ज्ञान
की कमी के कारण ही संपन्न परिवारों के मस्तिष्क में ऐसी अस्थिरता आई जिसे शब्दों में
बयान करना ही कठिन लगता है। ऐसे लोगों को भारतीयअध्यात्मिक
दर्शन का अध्ययन जरूर करना चाहिये। हमारे देश में अनेक लोग अपने बच्चों को बाहर भेजकर
यह सोचते हैं कि उनका जीवन धन्य हो गया पर बाद में उन्हें अपना जीवन अकेला गुजारना
पड़ता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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