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Saturday, November 1, 2014

राज्य प्रबंधक धूर्त कर्मचारियों को दंडित करते रहें-मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख(rajya prabandhak dhurt karamchariyon ko dandit karen-A Hindu hindi reiligion thought based on manu smriti)

      हमारे देश में लोकतांत्रिक प्रणाली अवश्य है पर यहां की राज्य प्रबंध व्यवस्था वही है जो अंग्रेजों ने प्रजा को गुलाम बनाये रखने की भावना से अपनायी थी। उन्होंने इस व्यवस्था को इस सिद्धांत पर अपनाया था कि राज्य कर्मीं ईमानदार होते हैं और प्रजा को दबाये रखने के लिये उन्हें निरंकुश व्यवहार करना ही  चाहिये।  राजनीतिक रूप से देश स्वतंत्र अवश्य हो गया पर जिस तरह की व्यवस्था रही उससे देश में राज्य प्रबंध को लेकर हमेशा ही एक निराशा का भाव व्याप्त  दिखता रहा है।  इसी भाव के कारण  देश में अनेक ऐसे आंदोलन चलते रहे हैं जिनके शीर्ष पुरुष देश में पूर्ण स्वाधीनताा न मिलने की शिकायत करतेे है।

मनुस्मृति में कहा गया है कि

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शरीकर्षात्प्राणाः क्षीयन्ते प्राणिनां यथा।

तथा राज्ञामपि प्राणाः क्षीयन्ते राष्ट्रकर्षणात्।।

     हिन्दी में भावार्थ-जिस प्रकर शरीर का अधिक शोषण करने से प्राणशक्ति कम होती उसी तरह जिस राज्य में प्रजा का अधिक शोषण होने वहां अशांति फैलती है।

राज्ञो हि रक्षाधिकृताः परस्वादयिनः शठाः।

भृत्याः भवन्ति प्रायेण तेभ्योरक्षेदियाः प्रजाः।।

     हिन्दी में भावार्थ-प्रजा के लिये नियुक्त कर्मचारियों में स्वाभाविक रूप से धूर्तता का भाव आ ही जाता है। उनसे निपटने का उपाय राज्य प्रमुख को करना ही चाहिए।
      देश की अर्थव्यवस्था को लेकर अनेक विवाद दिखाई देते हैं।  यहां ढेर सारे कर लगाये जाते हैं।  इतना ही नहीं करों की दरें जिस कथित समाजवादी सिद्धांत के आधार पर तय होती है वह कर चोरी को ही प्रोत्साहित करती है।  इसके साथ ही  कर जमा करने तथा उसका विवरण देते समय करदाता  इस तरह  अनुभव करते हैं जैसे कि उत्पादक नागरिक होना जैसे एक अपराध है।  देश के कमजोर, गरीब तथा अनुत्पादक लोगों की सहायता या कल्याण करने का सरकार को करना चाहिये पर इसका यह आशय कतई नहीं है कि उत्पादक नागरिकों पर बोझ डालकर उन्हें करचोरी के लिये प्रोत्साहित किया जाये।      यह हैरानी की बात है कि कल्याणकारी राज्य के नाम करसिद्धांत अपनाये गये कि गरीब लोगों की भर्लाइै के लिये उत्पादक नागरिकों पर इतना बोझ डाला जाये कि वह अमीर न हों पर इसका परिणाम विपरीत दिखाई दिया जिसके अनुसार  पुराने पूंजीपति जहां अधिक अमीर होते गये वहीं मध्यम और निम्न आय का व्यक्ति आय की दृष्टि से नीचे गिरता गया।  इतना ही नहीं  ऐसे नियम बने जिससे निजी व्यवसाय या लघु उद्यमों की स्थापना कठिन होती गयी।
            हालांकि अब अनेक विद्वान यह अनुभव करते हैं कि राज्य प्रबंध की नीति में बदलाव लाया जाये। इस पर अनेक बहसें होती हैं पर कोई निर्णायक कदम इस तरह उठाया नहीं जाता दिख रहा है जैसी कि अपेक्षा होती है।  हालांकि भविष्य में इसकी तरफ कदम उठायेंगे इसकी संभावना अब बढ़ने लगी है।  एक बात तय है कि कोई भी राज्य तभी श्रेष्ठ माना जाता है जहां प्रजा के अधिकतर वर्ग खुश रहते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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