हमारे देश में अनेक ऐसे
मठाधीश धर्म के नाम पर अपने आश्रमों में महल की तरह व्यवस्था कर उसमें राजा की तरह
विराजमान रहते हैं। यही नहीं उनके मुंहलगे कथित शिष्य उनकी सेवा इस तरह करते हैं
जैसे कि वह महल के कारिंदे हों। धर्म के प्रतीक रंगों के वस्त्र पहनकर अनेक ऐसे
लोग साधु बनकर समाज के पथप्रदर्शक बनने का ठेका लेते हैं जिन्होंने भारतीय
अध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित ज्ञान को रट तो लगाया पर धारण न कर उसे विक्रय
योग्य विषय बना लिया है। इतना ही नहीं ऐसे
कथित साधु अनेक निंदनीय प्रसंगों में शामिल होकर अपनी प्रतिष्ठा तक गंवा देते हैं
मगर फिर भी बेशरमी से अपने विरुद्ध कार्यवाही को हिन्दू धर्म का विरोध में की गयी
प्रचारित करते हैं। इतना ही नहीं प्रचार
माध्यमों में बने रहने का उनका मोह उन्हें इतना रहता है कि हर विशेष घटना पर अपनी
प्रतिकिया देने के लिये पर्दे पर हमेशा ही अवतरित होने का प्रयास करते हैं।
अध्यात्मिक विषयों पर चर्चा कर लोगों को आत्मिक रूप से परिपक्व बनाने की बजाय यह
लोभी साधु सांसरिक विषयों में दक्षता प्राप्त करने के हजार नुस्खे बताते हैं।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि
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साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार सार को
गहि रहै, थोथा देइ
उड़ाय।।
सामान्य हिन्दी में
भावार्थ-साधु वही व्यक्ति है जिसका स्वभाव सूप(छाज) की तरह हो। वह केवल ज्ञान
की चर्चा करे और व्यर्थ की बातों की उपेक्षा कर दे।
साधु भया तो क्या भया, बोलै नाहिं बिचार।
हतै पराई आतमा, जीभ गाधि तरवार।।
सामान्य
हिन्दी में भावार्थ-वह साधु
नहीं हो सकता जो बिना विचार किये ही सारे काम करता है। वह अपनी जीभ का तलवार की
तरह उपयोग कर दूसरे के आत्मा को रंज करता है।
सच्चा साधु वही है जो सहज भाव
से आचरण, विचार तथा व्यवहार करता
हो। मान और अपमान में समान हो। इतना ही
नहीं किसी भी स्थिति में वह अपनी वाणी को कृपाण की तरह उपयोग न करे। साधु की सबसे बड़ी पहचान उसकी मधुर वाणी तथा
प्रभावशाली चरित्र होता है। हम आजकल ऐसे अनेक कथित साधुओं को देखते हैं जो प्रचार
माध्यमों में चेहरा चमकाने के लिये उत्सुक रहते हैं पर यह अलग बात है कि अनेक बार
उनका यही मोह तब शत्रु बन जाता है जब उनकी हिंसक, मूर्खतापूर्ण तथा अव्यवहारिक गतिविधियां कैमरे के
सामने आ जाती हैं। आज के प्रचार माध्यम इतने शक्तिशाली है कि उनके उपयोग से अनेक
व्यवसायिक धर्म के ठेकेदार प्रतिष्ठित हो गये पर अंततः उन्हें बदनामी का बोझ भी
इसी वजह से झेलना पड़ा क्योंकि उन्होंने इस शक्ति को समझा नहीं।
ऐसा नहीं है कि सच्चे साधु इस
देश में मिलते नहीं है जिनके गुरु बनाया जा सके। हमारा मानना है कि सच्चे साधु कभी
प्रचार के मोह नहंी पड़ता न धर्म की दुकान लगाते हैं। आत्मप्रचार में लगे साधुओं की
सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह अपने शिष्य बनाने के लिये आओ आओ के नारे उसी तरह लगाते
हैं जैसे दुकानदार ग्राहक के लिये लगाते हैं।
उसी तरह जिस तरह फेरीवाले सामान लेकर घर घर जाते हैं वैसे ही कथित साधु
अपने शिष्यों के घर जाकर आतिथ्य ग्रहण उनको कृतार्थ करने का ढोंग रचते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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1 comment:
क्या कहा जाए ??
सबने चोला पहन रखा है ..
सत्य को सामने नहीं आने देते ये ..
झूठ को सत्य बना देते हैं !!
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