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Saturday, September 28, 2013

मनु स्मृति-धर्म के नाम पर ठगी करने वाले नर्क में गिरते हैं (dharam ke nam par thagi karne wale narak mein girte hain-relgion thougt based on manu smriti)



                        हमारे देश में धर्म का स्वरूप कभी स्पष्ट रूप से न समझाया जाता है न समझने का प्रयास कोई करता है।  हमारे भारतीय दर्शन के अनुसार धर्म का निर्वहन दो प्रकार से होता है। एक तो अध्यात्मिक साधना जो एकांत में ही की जा सकती है। दूसरा यह कि उस साधना के सहारे देह, बुद्धि और मन की शुद्धता से सांसरिक विषयों में सक्रिय भूमिका निभाई जाती है।  हमारे भारतीय अध्यात्मक संदेशों के अनुसार दिन का समय चार भागों में बांटा गया है। प्रातःकाल का समय अध्यात्मिक साधना या धर्म का, दोपहर का अर्थ, सांयकाल का  काम तथा रात्रि का मोक्ष के लिये- जिसे निद्रा भी कहा जा सकता है- के लिये होता है। यहां हम सायंकाल का समय में काम के विषय को सीमित रूप नहीं ले सकते। काम का सीधा आशय यह है कि मनोरंजन या उस मस्ती करने से है जिससे मानवीय मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता हो।  न ही उसमें व्यर्थ का हास्य वार्तालाप हो जिससे दूसरे मजाक बनता हो। इस समय विभाजन को कभी हमारे समाज ने व्यवाहारिक रूप से स्वीकार नहीं किया और स्थिति यह है कि अनेक जगह दोपहर को प्रवचन होते हैं तो सांयकाल को श्रीमद्भागवत गीता पर प्रवचन होते हैं। कहीं प्रातःकाल ही प्रमाद और मनोरंजन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है।
                        दूसरी बात यह है कि हमारे देश के लोग धर्म  के नाम पर सक्रियता दिखाते हुए स्वयं को धर्मभीरु प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं।  उनके इसी अहंकार के भाव का लाभ वह लोग लाभ उठाते हैं जो धर्म के नाम पर व्यापार करते हुए न केवल समाज में अपनी प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं वरन् उसके प्रभाव का लाभ उठाते हुए दूसरों की संपत्ति का हरण और जमीन पर अवैध कब्जों में लिप्त हो जाते है।  इतना ही नहीं उन पर युवक युवतियों के दैहिक शोषण का आरोप भी लगता है।  सबसे बड़ी बात यह कि ऐसे पेशेवर लोगों के पास श्रद्धालुओं और भक्तों का समूह सबसे अधिक होता है जिन्होंने अधिक से अधिक धन संपदा का संचय किया है।  जब उनके पाप का घड़ा फूटता है तो लोगों में भारी निराशा व्याप्त हो जाती है।
                        दरअसल हम अपने  धर्म की बात करें तो प्रातःकाल अध्यात्मिक साधना के बाद बाकी समय में सांसरिक विषयों में शुद्धता के साथ सक्रियता ही उसका रूप है।  प्रातःकाल योगसाधना या अन्य किसी रीति से धर्म का निर्वाह करने के बाद दिन के बाकी समय में उससे प्राप्त ज्ञान का परिचय देते हुए सक्रियता दिखाना चाहिये। कोई व्यक्ति धर्मभीरु है या नहीं इसका प्रमाण उसके ज्ञान संबंध वार्तालाप से अधिक सांसरिक विषयों में उसकी सक्रियता से ही लगता है। अनेक लोग ऐसे पेशेवर धर्माचार्यों पर विश्वास करते हैं पर उनके इर्दगिर्द घूमते है जिनके पास वाचन के लिये ढेर सारा ज्ञान होता है पर धारण उन्होंने स्वयं भी नहीं किया होता हैं। देखा जाये तो यह धार्मिक सक्रियता मनोरंजन का विकल्प तो हो सकती है पर उससे कोई अध्यात्मिक हित सिद्ध नहीं होता।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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धर्मध्वजी सा लुबधश्छाद्भिको लोकदम्भका।
बैडालवृत्तिको ज्ञेयो हिंस्त्र सर्वाभिसन्धकः।।
                        हिन्दी में भावार्थ-समाज में अपनी प्रतिष्ठा पाने के लिये धर्म का पाखंड, दूसरों की धन संपदा हड़पने की कामना, स्वार्थ पूर्ति के लिये ढोंगे, हिंसक कर्म तथा  दूसरों को भड़काने का काम करने  वाला व्यक्ति बिडाल वृत्ति का कहलाता है।

अधोदृष्टिनैष्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः।
शठो मिथ्याविनीततश्च बकव्रतचरौ द्विज।।
                        हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य झूठा, नम्रता के गुण परे, दूसरे का धन इच्छा करने वाला तथा हमेशा बुरे कर्म करने के साथ ही न अपने कल्याण की सोचता है न दूसरे का भला करता है बक वृत्ति का मानता है।
ये बकव्रतिनो विप्राः य च मार्जारलिङ्गिनः।
ते पतन्त्यन्धतामिस्त्रे तेन पापेन कर्मणा।।
                        हिन्दी में भावार्थ-बिडाल तथा बक वृत्ति वाले ऐसे लोग अपने पाप कर्मों के कारण अततः अंधे नरक में गिरते हैं।
                        पेशेवर धर्म के व्यापारी गेरुए और धवल वस्त्रधारी पहनते हैं जबकि हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार धर्म के वस्त्रों का कोई एक रंग पहचान नहीं होता। हमारे देश के कबीर, रहीम, तुंलसी, मीरा,सूर तथा अन्य अनेक संत कवि हुए हैं पर उनमें से किसी ने खास रंब के  वस्त्र या स्थान विशेष को को अपनी पहचान नहीं बनाया। उनके नाम की पहचान उनकी भक्ति तथा वह ज्ञान है जिसे उन्होंने धारण भी किया। उनकी तुलना भगवान के रूप से भले न हो पर भक्त के रूप में उनकी पूजा इसलिये की जाती है क्योंकि भगवान ऐसे भक्तों को अपने ही स्वरूप जैसा मानते हैं। हम यहां यह स्पष्ट कर दें कि ज्ञान होना ही महत्वपूर्ण नहीं वरन् उसे धारण करना भी आवश्यक है। हमारा समाज अपने उन प्राचीन अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन से परे हो गया है जिनमें स्वर्ण तथा हीरे की अनुभूति देने वाले शब्दों का भंडार है। उनसे सुखानुभूति  पठन पाठन या श्रवण के माध्यम से ही होती है। यही कारण है कि पेशेवर धर्माचार्य उनका रट्टा लगाकर अपने श्रद्धालुओं और भक्तों को उसी तरह प्रभावित करते हैं जैसे किसी वस्तु का व्यापारी अपने ग्राहकों के साथ करता है।  सच बात तो यह है कि हमारे यहां धर्म एक सार्वजनिक विषय होने से बक तथा बिडाल प्रकृत्ति लोगों को ही सर्वाधिक भौतिक लाभ होता दिखता है।  दूसरी बात यह कि आदमी के मन को भटकाव के दौरान अध्यात्मिक दर्शन एक विषय की तरह लगता है इसलिये वह मनोरंजन के व्यवसायियों के जाल में सहजात से फंस जाता है।
                        अनेक अध्यात्मिक चिंत्तक लोग इन  पेशेवर धार्मिक आचार्यों के अपराधों में लिप्त होने से दुःखी होते है पर यह उनका अज्ञान ही है।  भले ही ऐसे लोग अपने पाखंड से संपत्ति संचय करते हैं पर वह भी एक आम धनिक की तरह चिंताओं में डूबे रहते हैं। अपने वैभव छिन जाने का भय उनको सताता है।  धर्म के पथ चलने वाले व्यक्ति कभी दुःखी नहीं होते। जो नहीं चलते उन्हें भारी कष्ट होता है पर जो धर्म के नाम पर पाखंड करते हैं उनकी सजा सबसे अधिक बड़ी हो्रती है।  यह अलग बात है कि किसी किसी को जल्दी किसी को देर सजा मिलती है।         

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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