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Saturday, April 6, 2013

मनुस्मृति-सार्वजनिक संपत्ति को हानि पहुंचाना पापकर्म (manusmriti-sarwajanik sapatti ko hani pahunchana paapkarma



      हर मनुष्य जब कोई उपलब्धि प्राप्त करता है तो उसका श्रेय वह स्वयं को देता है पर जहां नाकामी हाथ आती है वहां दूसरों का दोष देखता है।  आत्ममंथन करने की प्रवृत्ति सामान्य मनुष्य नहीं होती  जबकि योग तथा ज्ञान साधक समय समय पर अपनी स्थिति पर विचार करते हुए कार्यक्रम बनाते हैं।   देखा तो यह जाता है कि दूसरों का काम बिगाड़ने वाले अपने पर आये संकट के लिये भाग्य को दोष देते हैं।  अपने दुष्कर्म का सही साबित करने के लिये तमाम तर्क ढूंढते हैं।  अपना पाखंड किसी को नहीं दिखता।  सबसे बड़ी बात यह कि इस संसार के अज्ञानी मनुष्य अपने दुःख  से दुःखी नहीं बल्कि  दूसरे के सुख से दुःखी और दूसरे के दुःख से सुखी होते हैं।  आत्मप्रवंचना में मनुष्य ऐसे सत्कर्मों का बखान करते हैं जो उन्होंने किये ही नहीं। ऐसे मनुष्य कभी भी मनुष्यता और पशुता का अंतर नहीं जानते।
परकार्यवहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः।
छली द्वेषी मृदृः क्रूरो विप्रो मार्जार उच्यते।।
       हिन्दी में भावार्थ-दूसरों के कार्य बिगाड़ने पाखंडी, अपना काम निकालने, दूसरों से छल करने, दूसरों की उन्नति देखकर मन में जलने तथा बाहर से कोमल पर अंदर से क्रूर हृदय रखने वाला मनुष्य पशु समान है।
वापी-कूप-तडागानामाराम-सुर-वेश्मनाम्।
उच्छेदने निराऽशङ्कः स विप्रो म्लेच्छ उच्यते।।
       हिन्दी में भावार्थ-बावड़ी, कुआं, तालाबों, वाटिकाओं और देवालयों में तोड़फोड़ करने वाला मनुष्य म्लेच्छ कहा जाता है।
         कुछ लोगों की आदत होती है कि वह दूसरों को हानि पहुंचाते हैं।  इतना ही नहीं अपने स्वार्थ की  पूर्ति के लिये बावड़ी, कुओं और तालाबों को समाप्त करते हैं। हमने देखा होगा कि अक्सर कहा जाता है कि नदियों, नहरों और सड़कों के किनारे अतिक्रमण हो जाता है। इतना ही नहीं कागजों पर कुऐं और बावड़ियां बन जाती हैं पर धरती पर उनका अस्तित्व होता ही नहीं है।  यह भ्रष्टाचार म्लेच्छ प्रवृत्ति का द्योतक है।  अनेक जगह हमने देखा है कि सर्वशक्तिमान के लिये स्थान बनाने के नाम पर जमीन पर अतिक्रमण कर उस पर दुकानें आदि बना दी जाती है।  वैसे तो अतिक्रमण कर धर्म के नाम पर स्थान बनाना भी एक तरह से अपराध है क्योंकि यह सर्वशक्तिमान के नाम का दुरुपयोग है। उस पर भी उनका व्यवसायिक उपयोग करना किसी भी प्रकार की आस्था को प्रमाणित नहीं करता।
   हमारा अध्यात्मिक दर्शन निरंकार परमात्मा के प्रति आस्था दिखाने का संदेश देता है। इसका वैज्ञानिक कारण भी है। निरंतर सांसरिक विषयों में उलझा मनुष्य स्वाभाविक रूप से ऊब जाता है। एक विषय से दूसरे विषय की तरफ जाता हुआ मनुष्य मन जब अध्यात्मिकता से परे होता है तब उसमें निराश तथा एकरसता का भाव आता है।  इस वजह से कुछ लोगों में विध्वंस की भावना आ जाती है। इससे बचने का यही उपाय है कि प्रातः जल्दी उठकर योग साधना, ध्यान और मंत्र का जाप कर अपने हृदय में प्रतिदिन नवीनता का भाव लाया जाये।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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