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Sunday, February 26, 2012

भर्तृहरि नीति शतक-भोजन के लिये आत्मसम्मान गंवाना ठीक नहीं (bharathari neeti shatak-bhojan ke liye atmasamman ganwana theek nahin)

             दुनियां में हर जीव के लिये भोजन अनिवार्य है पर इसका आशय यह कतई नहीं है किसी भूखे की दीनता देखकर उसके प्रति उदार भाव दिखाया जाये। कहा भी जाता है कि सबका दाता राम है और जिसने पेट दिया है उसने भोजन का इंतजाम भी पहले कर दिया है। यह भी कहा जाता है कि दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम! इन सब बातों के उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि दैहिक जीवन धारण करने के लिये भोजन अनिवार्य है पर इसका यह मतलब भी नहीं है कि सब कुछ यही भोजन है और कहीं भी किसी प्रकार भी ग्रहण किया जाये। हमेशा सुपाच्य भोजन करने के साथ ही इस बात पर भी ध्यान रखना चाहिए कि वह शुद्ध माध्यमो से अर्जित किया गया हो। ऐसे लोगों की संगत करना चाहिए जो पवित्र विचार और कर्म वाले हों। अगर कहीं भोजन के लिये दूसरे पर निर्भर हों तो यह भी देखना चाहिए कि वह आदमी किस प्रवृत्ति का है और उसके आय के साधन कैसे हैं?
                      भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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             लाङ्गल चालनभधश्चरणावपातं भूमौ निपत्य वदनोदर दर्शनं च।
           श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु धीरं विलोकयति चाटुश्तैश्च भुङ्वते।।
                  ‘‘जब कोई मनुष्य कुत्ते के सामने भोजन डालता है तो वह पूंछ हिलाकर अपनी दीनता का प्रदर्शन करता है पर जब कोई हाथ के सामने भोजन रखता है तो वह बड़ी गंभीरता से उसे देखते हुए कई बार मनाने पर ही उसे ग्रहण करता है।"
                   हमें भोजन देने वाले का आभार व्यक्त करना चाहिए पर इसक अर्थ यह कदापि नहीं है कि उसके इतने कृतज्ञ हो जायें कि उसके कहने पर अपवित्र काम करने लगें। कहीं भोजन मिले तो उस तत्काल नहीं टूटना चाहिए बल्कि सम्मान से आग्रह करने पर ही अपना हाथ बढ़ाना चाहिए। अगर हमें भूख है तो इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि कहीं भोजन बना हुआ है जिससे हम अपना मन तृप्त कर सकते हैं। उसी तरह दूसरे को भोजन कराते समय अपने अंदर अहंकार का भाव भी नहीं रखना चाहिए। यह प्रकृत्ति प्रदत्त है भले ही निमित्त कोई इंसान बनता है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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