जीवन जीना एक ऐसी कला है जिसे भारत के अध्यात्मिक ज्ञानियों तथा मनीषियों ने बड़े शोध के साथ प्रस्तुत किया है। अधिकतर लोग सन्यास का अथ संसार की दैनिक गतिविधियों के त्याग को समझते हैं जबकि श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार वह एक ऐसी मानसिक स्थिति है जिसमें मनुष्य आसपास के वातावरण से अपने हृदय के भाव को प्रथक रखता है। वह निर्लिप्त होकर संसार में दृष्टा की तरह रहता है। ज्ञानी आदमी अपनी दिनचर्या भी सामान्य ढंग से संपन्न करता है पर वह भावनात्मक रूप से किसी भी वस्तु, विषय या व्यक्ति के प्रति संवदेनशील नहीं होता। वह दया करता है पर निष्प्रयोजन, मित्रता निभाता है पर कामनाओं से रहित होकर और अपने कर्म किसी भी प्रकार के फल की इच्छा त्याग का त्याग भी कर देता है। देखा जाये तो दुःख सुख मन की स्थिति है। जहां कामना है वहां निराशा है यहां काम है वहां क्रोध है और जहां अहंकार है वहां तनाव है। इस स्थिति को ज्ञानी लोग जानते है।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि
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त्वजेद्धर्म दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत्।
त्यजेत्कोधुमुर्खी भार्या निःस्नेहान् बानधवांस्त्येजेत्।।
‘‘जिस धर्म में दया का गुण न हो, जिस गुरु में विद्या न हो तथा जिस स्त्री में स्नेह न हो उसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है।’’
यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्।
स्नेहामूलानि दुःखानि तानि त्यक्त्वा वसेत्सुखम्।।
‘‘स्नेह ही भय और दुःख का कारण है। स्नेह को त्यागकर ही मनुष्य सुखी रह सकता है।’’
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हतश्चाऽज्ञानतो नरः।
हर्त निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष्ट ह्यभर्तृकाः।।
‘‘ज्ञान रहित आचरण, अज्ञानी पुरुष का जीवन तथा सैन्य विहीन सेनापति तथा स्वामीहीन स्त्री का नाश अतिशीघ्र हो जाता है।
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त्वजेद्धर्म दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत्।
त्यजेत्कोधुमुर्खी भार्या निःस्नेहान् बानधवांस्त्येजेत्।।
‘‘जिस धर्म में दया का गुण न हो, जिस गुरु में विद्या न हो तथा जिस स्त्री में स्नेह न हो उसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है।’’
यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्।
स्नेहामूलानि दुःखानि तानि त्यक्त्वा वसेत्सुखम्।।
‘‘स्नेह ही भय और दुःख का कारण है। स्नेह को त्यागकर ही मनुष्य सुखी रह सकता है।’’
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हतश्चाऽज्ञानतो नरः।
हर्त निर्नायकं सैन्यं स्त्रियो नष्ट ह्यभर्तृकाः।।
‘‘ज्ञान रहित आचरण, अज्ञानी पुरुष का जीवन तथा सैन्य विहीन सेनापति तथा स्वामीहीन स्त्री का नाश अतिशीघ्र हो जाता है।
मूल कारण है किसी भी व्यक्ति, विषय या वस्तु के प्रति मोह, स्नेह और लोभ! खासतौर से जहां हम किसी दूसरे व्यक्ति के प्रति स्नेह मन में रखते हुए उसके हित की कामना करते हैं। वह पूरी न होने पर निराशा हाथ लगती है। अनेक बार ऐसा भी होता है कि हम स्नेह या आदरवश दूसरे का हितकर उपक्रम करते हैं पर वह फिर भी अपना द्वेषभाव नहीं त्यागता। कुछ स्नेहीजन तो अपने अधिकार का वास्ता देकर काम करने के लिये दबाव बनाते हैं। सज्जन लोग इस स्थिति का सामना नहीं कर पाते। यह अलग बात है कि वह इसकी वजह से उनको केवल तनाव ही झेलना पड़ता है। हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। गृहस्थ जीवन में अपने साथ रह रहे परिवार के सदस्यों को सहयोग करना चाहिए पर उनसे किसी भी प्रकार की अपेक्षा करना स्वयं को तनाव में लाना है। यह बात समझनी चाहिए।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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