कुछ पुरुषों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वह किसी स्त्री का चेहरा देखने के लिये व्यग्र रहते हैं। वैसे यह तो मानवीय स्वभाव है कि विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण रहता है पर कुछ पुरुष स्त्रियों को देखकर अपनी सुधबुध खो बैठते हैं। इतना ही नहीं कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो वैसे बहुत खामोश रहते हैं पर स्त्री पास हो तो वाचाल हो उठते हैं। ऐसे पुरुष अल्पचित वाले होते हैं। उनके चित्त में दृढ़ता का अभाव होता है। परिणाम यह होता है कि युवावस्था बीत जाने पर उनकी दैहिक सक्रियता समाप्त हो जाती है और बुढ़ापे का रोग उनको घेर लेता है।
इस बारे में कौटिल्य महाराज अपने अर्थशास्त्र में कहते हैं कि
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स्त्रीमुखालोकतनया व्यग्राणामल्पचेतसां।
ईहितानि हि गच्छन्ति यौवनेन सह क्षयम्।।
‘‘जिन पुरुषों का चित्त का भाव अल्प है वह हमेशा किसी स्त्री का मुख देखने के लिये व्यग्र रहते हैें। उनकी सब चेष्टायें उनकी जवानी बीतने के साथ ही समाप्त हो जाती हैं।’’
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स्त्रीमुखालोकतनया व्यग्राणामल्पचेतसां।
ईहितानि हि गच्छन्ति यौवनेन सह क्षयम्।।
‘‘जिन पुरुषों का चित्त का भाव अल्प है वह हमेशा किसी स्त्री का मुख देखने के लिये व्यग्र रहते हैें। उनकी सब चेष्टायें उनकी जवानी बीतने के साथ ही समाप्त हो जाती हैं।’’
हमारी फिल्मों ने युवा पीढ़ी में अतिशीघ्र बुढ़ापा लाने का काम बखूबी किया है। उन फिल्मों में कहानी के नाम पर तो पूरा केंद्र नायक रहता है और नायिका का पात्र केवल नाच गाने या रोने हंसने तक ही सीमित रह जाता है। कभी कभी तो ऐसी फिल्में भी बनायी जाती हैं जिनका उद्देश्य यही होता है कि स्त्री चेहरों की चमक दिखाकर युवा दर्शक से पैसा ऐंठा जाये। सच कहें तो फिल्में केवल युवाओं के मन में युवा स्त्री चेहरे देखने की व्यग्रता देखने की इच्छा का दोहन करने के लिये बनायी जाती हैं। यही कारण है कि कई फिल्मों में कहानियां तो नाम की होती हैं जो केवल इसलिये ही लिखी जाती हैं कि अच्छी अच्छी हीरोईनों का चेहरा किसी तरह दिखाकर युवाओं को भ्रमित किया जाये।
अविवाहित युवक अपने जीवन में ऐसी ही अभिनेत्रियों जैसी पत्नी की कामना करने लगते हैं जो कि संभव नहीं हो पाता। जब यथार्थ में जीवन संगिनी मिलती है शुरुआती दौर के बाद उससे युवाओं का मोह भंग हो जाता है। फिर शुरुआत होता है उदासीनता का दौर जो कहीं तनाव का कारण बनता है तो कहीं बुढ़ापे का। यह संभव नहीं है कि यथार्थ जीवनी में कोई स्त्री प्रतिदिन वैसा ही श्रृंगार करे जैसा कि फिल्मों में होता है।
सच बात तो यह है कि इन्हीं फिल्मों की वजह से ही हमारे देश की युवापीढ़ी अल्प चित वाली हो गयी है और इस वजह से लोग ही चिंतन, मनन तथा अध्यात्मिक अध्ययन से दूर होते जा रहे हैं।
-------------संकलक लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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1 comment:
सार्थक आलेख। धन्यवाद।
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