तेली करे बैल, ज्यों, घर ही कोस पचास।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आसन लगाकर ध्यान आदि करने से क्या लाभ यदि मन की आशायें नहीं मरी। यह तो ऐसे ही हुआ जैसे कि तेली का बैल अपने घर में पचास कोस की परिक्रमा कर लेता है।
सब आसन आसा तनै, निबरन कोई नांहि।
निवृत्ति को जानै नहीं, प्रवृत्ति प्रपंचहि मांहि।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब आसन करने से भी आशायें निवृत नहीं होती तो उसका लाभ सीमित है। मन की निवृत्ति का जाने और प्रपंचों से मुक्ति के बिना सभी आसन व्यर्थ हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योग साधना केवल योगासन और प्राणायम करना ही नहीं है। उसके साथ धारणा और ध्यान का भी बहुत महत्व है। योगासन के साथ अगर तत्व ज्ञान जानने का प्रयास नहीं किया जाता तो सब व्यर्थ है। वैसे आजकल योग साधना को केवल स्वास्थ्य तक ही सीमित रखकर प्रचारित किया जा रहा है जिसमें कुछ लोगों का व्यवसायिक उद्देश्य है। अगर आदमी केवल अपने जीवन में स्वस्थ होकर फिर योग भूल जाये या न करे तो भी लाभ नहीं है। फिर आदमी अगर अपने समाज के लिये किसी मतलब का नहीं तो उसका भी क्या लाभ?
वैसे हर योग साधक को श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करना चाहिये। उसमें जो तत्व ज्ञान है वही इस संसार को समझने के लिये पर्याप्त है। स्वस्थ समाज तो तब भी था जब भोग विलास के साधन नहीं थे पर समाज के लिये काम करने वाले लोग कितने रहे। योगासन और प्राणायम से देह और मन के विकास तो निकलते हैं पर इस शुद्धता का भाव हमेशा स्थाई बना रहे इसके लिये तत्व ज्ञान का होना जरूरी है। इसलिये भारतीय धर्म ग्रंथों में स्वर्ग से प्रीति रखने वाले वाक्यों को छोड़कर अन्य अच्छी बातों को ग्रहण करते हुए उन पर आपस चर्चा करना भी अच्छा है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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1 comment:
निःसंदेह यह एक श्रेष्ठ रचना है।
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