तथैवापेतधर्मेषु न मैत्रीमाचरेद् बुधः।।
हिंदी में भावार्थ-समझदार मनुष्य के लिये यही उचित है कि अहंकारी, अज्ञानी, क्रोधी, दुस्साहसी तथा धर्महीन मनुष्य से मित्रता न करे।
दुर्बुद्धिमतकृतप्रज्ञं छन्नं कूपं तृणरिव।
विवजैयीत मेधावी तस्मिन् मैत्री प्रणश्चति।।
हिंदी में भावार्थ-प्रतिभाशाली मनुष्य को दुर्बुद्धि एवं विवेकहीन को झार झंकार से ढंके कुएं की तरह त्याग कर दे क्योंकि उससे बनाये गये मैत्री संबंध नष्ट हो जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य जीवन में मित्रता का बहुत महत्व होता है पर कठिनाई यह है कि कामकाज, रिश्तेदारी या सभाओं आदि में मिलने वाले हर परिचित व्यक्ति को मित्र नहीं माना जा सकता। मित्रता होने के लिये आवश्यक है कि वैचारिक, बौद्धिक तथा आचरण के विषय में भी समानता हो। अगर असमानता हो तो वह मित्रता अधिक दिन नहीं चल पाती। अनेक लोग चालाक होते हैं और केवल इसलिये संपर्क बनाये रहते हैं कि समय आने पर कोई आदमी काम आयेगा। ऐसे लोगों को जब कोई दूसरा व्यक्ति अपने काम लायक नहीं लगता तो उससे मित्रता तोड़ देते हैं।
इसके अलावा कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जिनको यह पता ही नहीं कि मित्रता होती क्या है? विपत्ति के समय वह ऐसे पेश आते हैं जैसे कि उनका उससे कोई मतलब ही नहीं हो। हालांकि ऐसे लोगों को व्यवहार में पहले ही पहचाना जा सकता है क्योंकि वह अपनी दूरी बनाये रहते हैं। आप समझते रहें कि वह आपके मित्र हैं पर उनको ऐसी कोई अनुभूति नहीं होती। कहने का तात्पर्य यह है कि अपने आसपास लोगों का समूह देखकर यह नहीं सोचना चाहिये कि सभी हमारे मित्र हैं। वैसे दूसरे से समय पर मैत्रीपूर्ण व्यवहार निभाने की अपेक्षा करने के लिये यह भी आवश्यक है कि हम स्वयं भी वैसा ही करें तभी मित्रता स्थाई हो सकती है।
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