निराजीव्यं त्यजन्त्येनं शुष्कवृक्षभिवाउढजाः।।
हिंदी में भावार्थ-राजा मेघों के समान सब प्राणियों को आजीविका देता है। जो राजा प्रजा को आजीविका नहीं दे पाता उसका साथ सभी छोड़ जाते हैं, जिस प्रकार पेड़ को पक्षी छोड़ जाते हैं।
उत्थिता एवं पूज्यन्ते जनाः काय्र्यर्थिभिर्नरःै।
शत्रुवत् पतितं कोऽनुवन्दते मनावं पुनः।।
हिंदी में भावार्थ-जो व्यक्ति कार्य सिद्धि की अभिलाषा रखते हैं वह उत्थान की तरफ बढ़ रहे पुरुष का सम्मान करते हैं और जो पतन की तरफ जाता दिखता है उसे त्याग देते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने जीवन में अपनी भौतिक उपलब्धियों को लेकर कोई भ्रम नहीं रखना चाहिये। यदि आप धनी है पर समाज के किसी काम के नहीं है तो कोई आपका हृदय से सम्मान नहीं करता। जिस तरह जो राजा अपनी प्रजा को रोजगार नहीं उपलब्ध कराता उसे प्रजा त्याग देती है वैसे ही अगर धनी मनुष्य समाज के हित पर धन व्यय नहीं करता तो उसे कोई सम्मान नहीं देता। तात्पर्य यह है कि अगर आप समाज के शिखर पुरुष हैं तो जितना हो सके अपने आसपास और अपने पर आश्रित निर्धनों, श्रमिकों और बेबसों पर रहम करिये तभी तो आपका प्रभाव समाज पर रह सकता है वरना आपके विरुद्ध बढ़ता विद्रोह आपका समग्र भौतिक सम्राज्य भी नष्ट कर सकता है।
हमारे प्राचीन महापुरुष अनेक प्रकार की कथा कहानियों में समाज में समरसता के नियम बना गये हैं। उनका आशय यही है कि समाज में सभी व्यक्ति आत्मनियंत्रित हों। जिसे आज समाजवाद कहा जाता है वह एक नारा भर है और उसे ऊपर से नीचे की तरफ नारे की तरह धकेला जाता है जबकि हमारे प्राचीन संदेश मनुष्य को पहले ही चेता चुके हैं कि राजा, धनी और प्रभावी मनुष्य को अपने अंतर्गत आने वाले सभी लोगों को प्रसन्न रखने का जिम्मा लेना चाहिए। उनका आशय यह है कि समाजवाद लोगों में स्वस्फूर्त होना चाहिये जबकि आजकल इसे नारे की तरह केवल राज्य पर आश्रित बना दिया गया है। इस सामाजिक समरसता के प्रयास की शुरुआत भले ही राज्य से हो पर समाज में आर्थिक, सामाजिक, और प्रतिष्ठत पदों पर विराजमान लोगों को स्वयं ही यह काम करना चाहिये। इसके लिये हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों से जीवन के नियम सीखें न कि पश्चिम या पूर्व से आयातित नारे गाते हुए भ्रम में रहना चाहिए।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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